पूछने आया सबेरे
गांव का चैता
कहाँ सतना
कहाँ दिल्ली है
दोपहर की धूप
नींदों के बुने सपने
उतरता-सा गिद्ध
सूखी डाल से अपने ,
नये कुर्ते में उगी सी दीठ
राजधानी रेलगाड़ी-सी
चिबिल्ली है
सह नहीं पाती सिकुड़ती
यह गली चौपाल
सूखने सा लगा भीतर
लोक रस का ताल
मन सिनेमा हो रहा है अब
आँख सडकें
हाथ गिल्ली है।
गांव का चैता
कहाँ सतना
कहाँ दिल्ली है
दोपहर की धूप
नींदों के बुने सपने
उतरता-सा गिद्ध
सूखी डाल से अपने ,
नये कुर्ते में उगी सी दीठ
राजधानी रेलगाड़ी-सी
चिबिल्ली है
सह नहीं पाती सिकुड़ती
यह गली चौपाल
सूखने सा लगा भीतर
लोक रस का ताल
मन सिनेमा हो रहा है अब
आँख सडकें
हाथ गिल्ली है।