जो अपनी तबियत को
बदल नहीं सकते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
नये सूर्य को मिलते हैं
फूटे दर्पण
नये-नये पांवों को-
गड़े कील से
मन
ध्वस्त लकीरों के बाहर
आते डरते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कोल्हू से अर्थों में
बार-बार घूमे
बंधे-बंधे मिथकों से
खुलकर क्या झूमे
आत्म-मुग्ध होकर
अपने को ही छलते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कभी नए बिम्बों का
बादल तो बरसे
अपने हाथ बुनी नीड़ों का
मन तरसे
साहस मार-मार कर
लीकों पर चलते
बदल नहीं सकते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
नये सूर्य को मिलते हैं
फूटे दर्पण
नये-नये पांवों को-
गड़े कील से
मन
ध्वस्त लकीरों के बाहर
आते डरते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कोल्हू से अर्थों में
बार-बार घूमे
बंधे-बंधे मिथकों से
खुलकर क्या झूमे
आत्म-मुग्ध होकर
अपने को ही छलते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कभी नए बिम्बों का
बादल तो बरसे
अपने हाथ बुनी नीड़ों का
मन तरसे
साहस मार-मार कर
लीकों पर चलते