![]() |
अनुक्रम
कहने की बात - ठाकुरप्रसाद सिंह
- पाँच जोड़ बाँसुरी / ठाकुरप्रसाद सिंह
- नदिया का घना-घना कूल है / ठाकुरप्रसाद सिंह
- कब से तुम गा रहे! / ठाकुरप्रसाद सिंह
- अब मत सोचो / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे / ठाकुरप्रसाद सिंह
- सखि, कहाँ जाऊँ रे / ठाकुरप्रसाद सिंह
- चलो, चलें चम्पागढ़ / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पर्वत की घाटी का जल चंचल / ठाकुरप्रसाद सिंह
- दूर कहीं अकुशी है चिल्हकती / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पर्वत पर आग जला... / ठाकुरप्रसाद सिंह
- कटती फसलों के साथ... / ठाकुरप्रसाद सिंह
- झर-झर-झर-झर / ठाकुरप्रसाद सिंह
- दिन बसन्त के / ठाकुरप्रसाद सिंह
- मेरे घर के पीछे चन्दन है / ठाकुरप्रसाद सिंह
- मेरे आंगन से जाते पहने / ठाकुरप्रसाद सिंह
- बेला लो डूब ही गई / ठाकुरप्रसाद सिंह
- मेरा धन--मेरा क्वांरापन / ठाकुरप्रसाद सिंह
- बीच गाँव से होकर... / ठाकुरप्रसाद सिंह
- तुम मान्दोरिया / ठाकुरप्रसाद सिंह
- बाप-माँ से मुझे छीन लोगे / ठाकुरप्रसाद सिंह
- झरती है तुलसी की मंजरी / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पलाश लो फूला / ठाकुरप्रसाद सिंह
- मेरे आंगन में है रूई / ठाकुरप्रसाद सिंह
- यात्राएँ बीतीं / ठाकुरप्रसाद सिंह
- शाल के फूल / ठाकुरप्रसाद सिंह
- फूल से सजाओ / ठाकुरप्रसाद सिंह
- यह कैसा पेड़ / ठाकुरप्रसाद सिंह
- तिरि रिरि... / ठाकुरप्रसाद सिंह
- तुमने क्या नहीं देखा / ठाकुरप्रसाद सिंह
- आछी के वन / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पर्वत के ऊपर है वंशी / ठाकुरप्रसाद सिंह
- चिड़ियों ने पर्वत पर घोंसला बनाया / ठाकुरप्रसाद सिंह
- अरी मेरी लालसे! / ठाकुरप्रसाद सिंह
- नहीं छूटते सूख गए पत्ते / ठाकुरप्रसाद सिंह
- प्यार क्यों / ठाकुरप्रसाद सिंह
- आधी रात / ठाकुरप्रसाद सिंह
- नदी के उस पार तुम / ठाकुरप्रसाद सिंह
- यह मेरे प्रिय का मंडप है / ठाकुरप्रसाद सिंह
- गाँव के किनारे है बरगद का पेड़ / ठाकुरप्रसाद सिंह
- बन्धन से एक साथ हारे / ठाकुरप्रसाद सिंह
- सिन्दूरी आभा में / ठाकुरप्रसाद सिंह
- मैं वंशी / ठाकुरप्रसाद सिंह
- सब लोग देखते आग... / ठाकुरप्रसाद सिंह
- जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ! / ठाकुरप्रसाद सिंह
- खिले फूल-से दिन यौवन के / ठाकुरप्रसाद सिंह
- जंगल में आग लपट है झर-झर / ठाकुरप्रसाद सिंह
- नदी किनारे / ठाकुरप्रसाद सिंह
- धान के ये फूल / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पर्वत-पर्वत पर सरसों / ठाकुरप्रसाद सिंह
- यह मेरे जीवन का जल / ठाकुरप्रसाद सिंह
- सीखा कहाँ से रोना / ठाकुरप्रसाद सिंह
- बन मन में / ठाकुरप्रसाद सिंह
- पीतल की वंशी / ठाकुरप्रसाद सिंह
- मोर पाँखें / ठाकुरप्रसाद सिंह
- तपरिसा के / ठाकुरप्रसाद सिंह
- आने को कहना / ठाकुरप्रसाद सिंह
- नन्दन वन की कोयल / ठाकुरप्रसाद सिंह
- देह यह बन जाए केवल पाँव / ठाकुरप्रसाद सिंह
- आंधी के वन / ठाकुरप्रसाद सिंह
[वंशी और मादल, रचनाकार: ठाकुरप्रसाद सिंह, प्रकाशक: पराग प्रकाशन, 3/114, कर्ण गली, विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली-110032, वर्ष: द्वितीय संस्करण : 1979, भाषा: हिन्दी, विषय: कविताएँ, शैली: नवगीत, पृष्ठ संख्या: 68]
.......................................................
कहने की बात
१९५१ में पहली बार मेरे कुछ गीत प्रकाश में आए, तब उनमें श्री अज्ञेय को हिन्दी कविता के नए वातायन खुलते दीख पड़े थे । इसके बाद के वर्ष प्रयोगवाद तथा नई कविता की चहल-पहल के वर्ष थे । उन दिनों गीतों के साथ मुझे प्रतीक्षा करने की स्थिति में वर्षों खड़ा रहना पड़ा ।
आलोचकों को इन वर्षों में उनकी निज की दुविधा के चलते काफ़ी कष्ट झेलने पड़े । नित्य उन्हें अपने वक्तव्य बदलने पड़ते थे । कल जिन्हें ठीक कहा, आज उन्हीं से साफ़-साफ़ बातें करने की स्थिति में आ गए । आज जिनसे साफ़ बातें कीं, कल उन्हीं का पुनर्मूल्यांकन करने को सन्नद्ध हो गए ।
प्रयोगवाद अथवा नई कविता के स्वर आज रास्ते के, दूर चले गए संगीत की तरह मद्धिम पड़ गए हैं । आलोचक एक बार फिर पुनर्मूल्यांकन की स्थिति में आ गए हैं । कल जिन गीतों को रोमांटिक अवशेष कहकर पृष्ठभूमि में फेंक दिया गया था, उन्हें आज हिन्दी कविता का स्वाभाविक विकास मानकर नए सिरे से स्थापित किया जा रहा है । इन गीतों के माध्यम से मैं पिछले वर्षों में स्वयं अपने भीतर की जड़ता से संघर्ष करता रहा हूँ ।संथाल परगने में नौकरी खोजने गया था, तब तक मेरी कविता का एक युग समाप्त हो चुका था । मैं अपने ही दुहराव से भयभीत था और किसी नए उद्वेग की खोज में था । उस समय मेरे और साथी इस जड़ता से त्रस्त होकर पश्चिम की ओर चले गए, मुझे परिस्थितियाँ पूरब के आदिवासियों के देश में ढकेल ले गईं । यूरोप के प्रसिद्ध चित्रकार गोगां को जिस आदिम (प्रिमिटिव) उद्वेग के लिए टाहिटी द्वीप में प्रवास करना पड़ा, वह मुझे संथालों के बीच अनायास ही मिल गया । रोज़ी छूटे तो पच्चीस वर्ष होने को आए, पर वह आदिम उद्वेग छोड़ने की स्थिति में मैं आज भी नहीं आ पाया हूँ ।
इन गीतों को मैंने श्रोताओं और पाठकों की सुविधा के लिए बार-बार संथाली गीतों का अनुवाद कहा है । इस अनुवाद शब्द के चलते मेरे कितने ही मित्रों को घोर कष्ट हुआ । कुछ ने तो मेरी अप्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए कुछ प्रामाणिक पद्यबद्ध अनुवाद भी यत्र-तत्र भेजे, जिससे हिन्दी पाठकों का अज्ञान कम हो जाए, पर सम्पादकों के व्यवस्थित षड्यन्त्र से उनकी यह सदिच्छा अपूर्ण ही रह गई । दूसरी ओर अपनी ताज़गी के लिए प्रशंसित इन छोटे गीतों ने मेरे छायावादोत्तर कवि को अपनी गहराइयों में डुबो लिया, मैं इनके भीतर से दूसरा व्यक्ति बनकर बाहर निकला ।
अप्रामाणिक अनुवाद होने से यह सब सम्भव नहीं हो सकता था । वस्तुत: मैंने अनुवाद किए भी नहीं थे । संथाली गीतों के ताप में मैंने अपनी कविता का परिष्कार किया था । ये मेरी कविताएँ थीं जिनमें आदिम उद्वेग की धड़कन थी, जिनके रूप में आदिवासियों की सादी और स्वस्थ भंगिमा थी ।
लोक-जीवन से अभिव्यंजना का माध्यम ग्रहण करने की जिस प्रवृत्ति से कविता प्रयोग का खेल बनने से बच गई, उसी ने मेरी इन कविताओं के भीतर प्रेरणा का कार्य किया है । छोटे से जीवन के इतने वर्ष मैंने अनुवाद को नहीं, नई रचना को दिए हैं । मेरे इस कथन की सत्यता में जिन्हें विश्वास होगा, उनके निकट मेरी इन कविताओं का कुछ मूल्य अवश्य होगा । जो मुझे अप्रामाणिक अनुवादक सिद्ध करने पर तुले बैठे हैं, उनसे मुझे पहले भी कुछ नहीं कहना था, आज भी कुछ नहीं कहना है। - ठाकुरप्रसाद सिंह, ईश्वरगंगी, वाराणसी, १९५९
.......................................................
.......................................................
पाँच जोड़ बाँसुरी
बासन्ती रात के विह्वल पल आख़िरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी
वंशी स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो लेकिन
आधे अँचरा पर पिय सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी
.......................................................
नदिया का घना-घना कूल है
नदिया का घना-घना कूल है
वंशी से बेधो मत प्यारे
यह मन तो बिंधा हुआ फूल है
नदिया का घना-घना कूल है
थिर है नदिया का जल जामुनी
तिरती रे छाया मनभावनी
याद नहीं आती क्या चांदनी!
पिछला जीवन क्या फिजूल है ?
नदिया का घना-घना कूल है
मैं आई जल भर हूँ आनने
या नहीं की सुख के दिन मांगने
जो जाता बीते फल थामने
करता वह बहुत बड़ी भूल है
नदिया का घना-घना कूल है
नदिया का घना-घना कूल है
वंशी से बेधो मत प्यारे
यह मन तो बिंधा हुआ फूल है
नदिया का घना-घना कूल है
थिर है नदिया का जल जामुनी
तिरती रे छाया मनभावनी
याद नहीं आती क्या चांदनी!
पिछला जीवन क्या फिजूल है ?
नदिया का घना-घना कूल है
मैं आई जल भर हूँ आनने
या नहीं की सुख के दिन मांगने
जो जाता बीते फल थामने
करता वह बहुत बड़ी भूल है
नदिया का घना-घना कूल है
.......................................................
कब से तुम गा रहे!
कब से तुम गा रहे, कब से तुम गा रहे
कब से तुम गा रहे!
कब से तुम गा रहे, कब से तुम गा रहे
कब से तुम गा रहे!
जाल धर आए हो नाव में
मछुओं के गाँव में
मेरी गली साँकरी की छाँव में
वंशी बजा रहे, कि
कब से तुम गा रहे
कब से हम गा रहे, कब से हम गा रहे
कब से हम गा रहे!
घनी-घनी पाँत है खिजूर की
राह में हुजूर की
तानें खींच लाईं मुझे दूर की
वंशी नहीं दिल ही गला कर
तेरी गली में हम बहा रहे
कब से हम गा रहे!
सूनी तलैया की ओट में
डुबो दिया चोट ने
तीर लगे घायल कुरंग-सा
मन लगा लोटने
जामुन-सी काली इन भौंह की छाँह में
डूबे हम जा रहे,
कब से हम गा रहे!
जाल धर आए हो नाव में
मछुओं के गाँव में
मेरी गली साँकरी की छाँव में
वंशी बजा रहे, कि
कब से तुम गा रहे
कब से हम गा रहे, कब से हम गा रहे
कब से हम गा रहे!
घनी-घनी पाँत है खिजूर की
राह में हुजूर की
तानें खींच लाईं मुझे दूर की
वंशी नहीं दिल ही गला कर
तेरी गली में हम बहा रहे
कब से हम गा रहे!
सूनी तलैया की ओट में
डुबो दिया चोट ने
तीर लगे घायल कुरंग-सा
मन लगा लोटने
जामुन-सी काली इन भौंह की छाँह में
डूबे हम जा रहे,
कब से हम गा रहे!
.......................................................
अब मत सोचो
अब मत सोचो
आँखों के जल को प्रिय वंशी से पोंछो
धानों के खेतों-सी गीली
मन में यह जो राह गई है
उस पर से लौट गए प्रियतम के
पैरों की छाप नई है
पाँवों के चिन्हों में जल जो निथराया
मन का ही दर्द उमड़ अँखियन में छाया
आँखों में भर आए उस जल को प्यारे
तुम वंशी से पोंछो
अब मत सोचो
.........................................................
पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे
पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे
साखू की डाल पर उदासे मन
उन्मन का क्या होगा
पात-पात पर अंकित चुम्बन
चुम्बन का क्या होगा
मन-मन पर डाल दिए बन्धन
बन्धन का क्या होगा
पात झरे, गलियों-गलियों बिखरे
कोयलें उदास मगर फिर-फिर वे गाएँगी
नए-नए चिन्हों से राहें भर जाएंगी
खुलने दो कलियों की ठिठुरी ये मुट्ठियाँ
माथे पर नई-नई सुबहें मुस्काएँगी
गगन-नयन फिर-फिर होंगे भरे
पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे
.....................................................
सखि, कहाँ जाउँ रे
सखि, कहाँ जाउँ रे
मोको कहाँ ठाउँ रे
आधा मन घरे मोरा
आधा मन बाहिरे
आधा मन लगा मोरा
कुँआरे के साँवरे
सखि, कहाँ जाउँ रे
मोको कहाँ ठाउँ रे ?
सखि, कहाँ जाउँ रे
मोको कहाँ ठाउँ रे
आधा मन घरे मोरा
आधा मन बाहिरे
आधा मन लगा मोरा
कुँआरे के साँवरे
सखि, कहाँ जाउँ रे
मोको कहाँ ठाउँ रे ?
.......................................................
चलो, चलें चम्पागढ़
चलो, चलें चम्पागढ़--सपनों के देश
प्यारे के देश
उत्तर से आ रही हवाएँ
बूँदों की झालर पहने
दक्षिण में उठ-उठकर छा रहे
पागल बादल गहिरे!
बिजली के बजते संदेश
प्यारे के देश
दस दिन के पाँव और दस दिन की नाव
दूर देश रे
तब जाकर मिल पाएगा पिय का गाँव
दूर देश रे
ऎसा विधना का आदेश
प्यारे के देश
चलो, चलें चम्पागढ़--सपनों के देश
.......................................................
चलो, चलें चम्पागढ़--सपनों के देश
प्यारे के देश
उत्तर से आ रही हवाएँ
बूँदों की झालर पहने
दक्षिण में उठ-उठकर छा रहे
पागल बादल गहिरे!
बिजली के बजते संदेश
प्यारे के देश
दस दिन के पाँव और दस दिन की नाव
दूर देश रे
तब जाकर मिल पाएगा पिय का गाँव
दूर देश रे
ऎसा विधना का आदेश
प्यारे के देश
चलो, चलें चम्पागढ़--सपनों के देश
.......................................................
पर्वत की घाटी का जल चंचल
पर्वत की घाटी का जल चंचल
झरने का दूध-धवल
एक घड़ा सिर पर ले
एक उठा हाथ में
मैं चलती, जल चलता साथ में
मेरी कच्ची कोमल देह पर
छलक-छलक गाता है छल छल छल
जल चंचल
झरने का दूध-धवल
पर्वत की घाटी का जल चंचल
झरने का दूध-धवल
एक घड़ा सिर पर ले
एक उठा हाथ में
मैं चलती, जल चलता साथ में
मेरी कच्ची कोमल देह पर
छलक-छलक गाता है छल छल छल
जल चंचल
झरने का दूध-धवल
.......................................................
दूर कहीं अकुशी है चिल्हकती
दूर कहीं अकुशी है चिल्हकती
गहरे पथरौटे के कूप-सी
प्रीत मोरी मैं ऊभचूमती
हाय दैया निरदैया आस रे
डोरी-सी रह-रह कर ढीलती
दूर कहीं अकुशी है चिल्हकती
अकुशी : एक चिड़िया,
दूर कहीं अकुशी है चिल्हकती
गहरे पथरौटे के कूप-सी
प्रीत मोरी मैं ऊभचूमती
हाय दैया निरदैया आस रे
डोरी-सी रह-रह कर ढीलती
दूर कहीं अकुशी है चिल्हकती
अकुशी : एक चिड़िया,
जो वियोग की सूचक है
.......................................................
पर्वत पर आग जला
पर्वत पर आग जला बासन्ती रात में
नाच रहे हैं हम-तुम हाथ दिए हाथ में
धन मत दो, जन मत दो
ले लो सब ले लो
आओ रे लाज भरे
खेलो सब खेलो
होठों पर वंशी हो, हवा हँसे झर-झर
पास भरा पानी हो, हाथों में मादर
फिर बोलो क्या रखा
दुनिया की बात में ?
हाथ दिए हाथ में
.......................................................
कटती फसलों के साथ...
रात-रात भर नाच-नाचकर
विदा हो चलेंगे स्नेही-जन
पर कैसे लौटा पाऊंगी
खोया जो मेरा अपनापन ?
मेरा धन
मेरा क्वाँरापन
.......................................................
किन्तु फूल जूड़े का
पर्वत पर आग जला बासन्ती रात में
नाच रहे हैं हम-तुम हाथ दिए हाथ में
धन मत दो, जन मत दो
ले लो सब ले लो
आओ रे लाज भरे
खेलो सब खेलो
होठों पर वंशी हो, हवा हँसे झर-झर
पास भरा पानी हो, हाथों में मादर
फिर बोलो क्या रखा
दुनिया की बात में ?
हाथ दिए हाथ में
.......................................................
कटती फसलों के साथ...
कटती फसलों के साथ कट गया सन्नाटा
बजती फसलों के साथ ब्याह के ढोल बजे
मेरे माथे पर झुक-झुक आते पीत चन्द्र
तुम इतने सुन्दर इसके पहले कभी न थे
चांदनी अधिक अलसाई सूनी घड़ियों में
बाँसुरी अधिक भरमाई टेढ़ी गलियों में
कितनी उदार हो जाती कनइल की छाया
कितनी बेचैनी है बेले की कलियों में
पीले रंगों से जगमग तेरी अंगनाई
पीले पत्तों से भरती मेरी अमराई
पर्वती [1] सरीखी तुम्हें कहूँ या न भी कहूँ
हर बार प्रतिध्वनि लौट पास मेरे आती
अच्छा ही हुआ कि राहें उलझ गईं मेरी
यदि पास तुम्हारे जाती तो तुम क्या कहते?
शब्दार्थ:
1. संथाल परगना का पर्वत
बजती फसलों के साथ ब्याह के ढोल बजे
मेरे माथे पर झुक-झुक आते पीत चन्द्र
तुम इतने सुन्दर इसके पहले कभी न थे
चांदनी अधिक अलसाई सूनी घड़ियों में
बाँसुरी अधिक भरमाई टेढ़ी गलियों में
कितनी उदार हो जाती कनइल की छाया
कितनी बेचैनी है बेले की कलियों में
पीले रंगों से जगमग तेरी अंगनाई
पीले पत्तों से भरती मेरी अमराई
पर्वती [1] सरीखी तुम्हें कहूँ या न भी कहूँ
हर बार प्रतिध्वनि लौट पास मेरे आती
अच्छा ही हुआ कि राहें उलझ गईं मेरी
यदि पास तुम्हारे जाती तो तुम क्या कहते?
शब्दार्थ:
1. संथाल परगना का पर्वत
.......................................................
झर-झर-झर-झर
झर झर झर झर
जैसे यूकिलिप्टस के स्वर
बरसे बादल, कुल एक पहर
ओरी मेरी चुई रात भर
नन्हे छत्रक दल के ऊपर
इन्द्रदेव तेरा गोरा जल
मेरे द्वार विहंसता सुन्दर
तेरे स्वर के बजते मादल
रात रात भर
बादल, रात रात भर
झर झर झर झर
बरसे बादल, कुल एक पहर !
......................................................
झर झर झर झर
जैसे यूकिलिप्टस के स्वर
बरसे बादल, कुल एक पहर
ओरी मेरी चुई रात भर
नन्हे छत्रक दल के ऊपर
इन्द्रदेव तेरा गोरा जल
मेरे द्वार विहंसता सुन्दर
तेरे स्वर के बजते मादल
रात रात भर
बादल, रात रात भर
झर झर झर झर
बरसे बादल, कुल एक पहर !
......................................................
दिन बसन्त के
दिन बसन्त के
राजा-रानी-से तुम दिन बसन्त के
आए हो हिम के दिन बीतते
दिन बसन्त के
पात पुराने पीले झरते हैं झर-झर कर
नई कोंपलों ने शृंगार किया है जी भर
फूल चन्द्रमा का झुक आया है धरती पर
अभी-अभी देखा मैंने वन को हर्ष भर
कलियाँ लेते फलते, फूलते
झुक-झुककर लहरों पर झूमते
आए हो हिम के दिन बीतते
दिन बसन्त के
.....................................................
मेरे घर के पीछे चन्दन है
मेरे आँगन से जाते पहने
पीली धोती पीला ओढ़ना
आँगन में फूल खिले दूधिया
हाथ बढ़ाना पर मत तोड़ना
राजा-रानी-से तुम दिन बसन्त के
आए हो हिम के दिन बीतते
दिन बसन्त के
पात पुराने पीले झरते हैं झर-झर कर
नई कोंपलों ने शृंगार किया है जी भर
फूल चन्द्रमा का झुक आया है धरती पर
अभी-अभी देखा मैंने वन को हर्ष भर
कलियाँ लेते फलते, फूलते
झुक-झुककर लहरों पर झूमते
आए हो हिम के दिन बीतते
दिन बसन्त के
.....................................................
मेरे घर के पीछे चन्दन है
मेरे घर के पीछे चन्दन है
लाल चन्दन है
तुम ऊपर टोले के
मैं निचले गाँव की
राहें बन जाती हैं रे
कड़ियाँ पाँव की
समझो कितना
लाल चन्दन है
तुम ऊपर टोले के
मैं निचले गाँव की
राहें बन जाती हैं रे
कड़ियाँ पाँव की
समझो कितना
मेरे प्राणों पर बन्धन है!
आ जाना बन्दन है
लाल चन्दन है
आ जाना बन्दन है
लाल चन्दन है
.......................................................
मेरे आँगन से जाते...
पीली धोती पीला ओढ़ना
आँगन में फूल खिले दूधिया
हाथ बढ़ाना पर मत तोड़ना
.......................................................
बेला लो डूब ही गई
बेला लो डूब ही गई
झलफल बेला
झिलमिल बेला
बेला लो डूब ही गई
रो-रोकर नदी के किनारे
धारे, धारे
प्राण विकल तेरे रे हारे
दिशा तुम्हें भूली रे
नइहर के दूर हैं सहारे
वही हुआ, नाव की तुम्हारे
लो डोरी छूट ही गई
बेला लो डूब ही गई
बेला लो डूब ही गई
झलफल बेला
झिलमिल बेला
बेला लो डूब ही गई
रो-रोकर नदी के किनारे
धारे, धारे
प्राण विकल तेरे रे हारे
दिशा तुम्हें भूली रे
नइहर के दूर हैं सहारे
वही हुआ, नाव की तुम्हारे
लो डोरी छूट ही गई
बेला लो डूब ही गई
.......................................................
मेरा धन-- मेरा क्वाँरापन
मेरा धन--
मेरा धन--
मेरा क्वाँरापन
मुझे छोड़ सबको सुख होगा
सब लौटा पाएँगे निजपन
तुम चाँद-सी बहू पाओगे
पिता करें स्वीकार वधू-धन
मुझे छोड़ सबको सुख होगा
सब लौटा पाएँगे निजपन
तुम चाँद-सी बहू पाओगे
पिता करें स्वीकार वधू-धन
रात-रात भर नाच-नाचकर
विदा हो चलेंगे स्नेही-जन
पर कैसे लौटा पाऊंगी
खोया जो मेरा अपनापन ?
मेरा धन
मेरा क्वाँरापन
.......................................................
बीच गाँव से होकर
बीच गाँव से होकर
बीच गाँव से होकर
जाने वाली लापरवाह
तुझे न शायद लग पाती
तुझे न शायद लग पाती
अपने ही मन की थाह
किन्तु फूल जूड़े का
मुस्काता है होकर पागल
आँचल किसको बुला रहा है
आँचल किसको बुला रहा है
हिला-हिलाकर बाँह ?
......................................................
......................................................
तुम मान्दोरिया
तुम मान्दोरिया
हम नाचोनिया
मादर ना बजा
रसीला मादर न बजा
बाप खड़े
माँ खड़ी
खिड़की का पल्ला धरे
खड़ा है पिया
हम नाचोनिया
मादर ना बजा
.......................................................
तुम मान्दोरिया
हम नाचोनिया
मादर ना बजा
रसीला मादर न बजा
बाप खड़े
माँ खड़ी
खिड़की का पल्ला धरे
खड़ा है पिया
हम नाचोनिया
मादर ना बजा
.......................................................
बाप-माँ से मुझे छीन लोगे
बाप-माँ से मुझे छीन लोगे
क्या मुझे प्यार उतना ही दोगे ?
तुम भरोसा करो प्राण मेरा
प्यार मेरा कि है प्यार मेरा
मैं तुम्हें प्यार दूंगा अनोखा
है न पाया किसी ने, न देखा
तुम मेरी, हम तुम्हारे ही होंगे
'तीरी-पुरुष दुलाड़ तीरे-जूगे'
.......................................................
बाप-माँ से मुझे छीन लोगे
क्या मुझे प्यार उतना ही दोगे ?
तुम भरोसा करो प्राण मेरा
प्यार मेरा कि है प्यार मेरा
मैं तुम्हें प्यार दूंगा अनोखा
है न पाया किसी ने, न देखा
तुम मेरी, हम तुम्हारे ही होंगे
'तीरी-पुरुष दुलाड़ तीरे-जूगे'
.......................................................
झरती है तुलसी की मंजरी
झरती है तुलसी की मंजरी
निखर रहे पात रे
बजती है पियवा की बंसरी
सिहर रहे गात रे
झरती है तुलसी की मंजरी
निखर रहे पात रे
बजती है पियवा की बंसरी
सिहर रहे गात रे
.......................................................
पलाश लो फूला
फूला, इचाक पलाश लो फूला
आ, अमराइयों में प्रिय मेरी
ग्रीष्म के अंधड़ का पड़ा झूला
पलाश लो फूला
......................................................
फूला, इचाक पलाश लो फूला
आ, अमराइयों में प्रिय मेरी
ग्रीष्म के अंधड़ का पड़ा झूला
पलाश लो फूला
......................................................
मेरे आंगन में है रुई
मेरे आंगन में है रुई
रूई का सूत
उत्तर से आंधीहै दक्षिण से पानी
मुझको है दिए की
बाती बनानी
ख़बरदार रेआंधी-पानी के पूत
......................................................
यात्राएँ बीतीं
यात्राएँ बीतींपर्वत की
मेरे आंगन में है रुई
रूई का सूत
उत्तर से आंधीहै दक्षिण से पानी
मुझको है दिए की
बाती बनानी
ख़बरदार रेआंधी-पानी के पूत
......................................................
यात्राएँ बीतीं
यात्राएँ बीतींपर्वत की
मेले बीते
तुमसे जेठी ब्याहीं
ब्याहीं छोटी तुमसे
सबने सज-बजकर ब्याह रचे
पाए मनचीतेमेले बीते
पगली बेटी अनमन
घूम फिरी तू रनबन
बीते दिन गिन-गिन
आँसू पीतेमेले बीते
यात्राएँ बीतीं
.......................................................
तिरि रिरि,
तुमसे जेठी ब्याहीं
ब्याहीं छोटी तुमसे
सबने सज-बजकर ब्याह रचे
पाए मनचीतेमेले बीते
पगली बेटी अनमन
घूम फिरी तू रनबन
बीते दिन गिन-गिन
आँसू पीतेमेले बीते
यात्राएँ बीतीं
.......................................................
शाल के फूल
शाल के फूल
पलाश के फूल
सुहाग की भूल
मदार के फूल
कनैर के फूल
सुहाग की धूल
न फूले तो फूलजो फूले तो फूल
न भूली तो भूल
शाल के फूल
पलाश के फूल
सुहाग की भूल
मदार के फूल
कनैर के फूल
सुहाग की धूल
न फूले तो फूलजो फूले तो फूल
न भूली तो भूल
......................................................
फूल से सजाओ
फूल से सजाओ
मुझको
फूल से सजाओ
माथे पर फूल धरो मेरे माँ
बलि बलि जाओ
माँ मुझे सजाओ
शाल के सुहाने फूल
अंग-अंग के फूले
मेरी यह देह शाल-
बन-सी
माँ झूमेफूलों-सी मुझे
देव-चौरे धर आओ
बाबा, धर आओ
माँ मुझे सजाओ
फूल से सजाओ
मुझको
फूल से सजाओ
माथे पर फूल धरो मेरे माँ
बलि बलि जाओ
माँ मुझे सजाओ
शाल के सुहाने फूल
अंग-अंग के फूले
मेरी यह देह शाल-
बन-सी
माँ झूमेफूलों-सी मुझे
देव-चौरे धर आओ
बाबा, धर आओ
माँ मुझे सजाओ
.......................................................
यह कैसा पेड़
यह कैसा पेड़लता है किसकी ?
सेंदुर का पेड़
लता है काजल की
तुम न बताना सबको
तुम न बुलाना सबको
अंगुली दिखाना मत
देखो मुरझाना मत
नजर इसे है विष की
यह कैसा पेड़लता है किसकी ?
सेंदुर का पेड़
लता है काजल की
तुम न बताना सबको
तुम न बुलाना सबको
अंगुली दिखाना मत
देखो मुरझाना मत
नजर इसे है विष की
हम दोनों आएंगे
ब्याह किए आएंगे
सेंदुर से माथा भर
काजल रचायेंगे
भेंट चढ़ाएंगे आँसू-
ब्याह किए आएंगे
सेंदुर से माथा भर
काजल रचायेंगे
भेंट चढ़ाएंगे आँसू-
जल कीलता काजल की
.......................................................
.......................................................
तिरि रिरि
तिरि रिरि,
तिरि रिरि,
तिरि रिरिबजी बाँसुरी
चन्दन बन
मलयागिरी
तिरि रिरि
रात का बिराना पल
आखिरीबजी बाँसुरी
तिरि रिरि
......................................................
चन्दन बन
मलयागिरी
तिरि रिरि
रात का बिराना पल
आखिरीबजी बाँसुरी
तिरि रिरि
......................................................
तुमने क्या नहीं देखा
तुमने क्या नहीं देखा
आग-सी झलकती में
तुमने क्या नहीं देखा
बाढ़-सी उमड़ती में
नहीं, मुझे पहचाना
धूल भरी आँधी में
जानोगे तब जब
कुहरे-सी घिर जाऊँगी
मैं क्या हूँ मौसम
जो बार-बार आऊँगी !
......................................................
हवाएँ सन सन
आछी के बन
.......................................................
आधी रात
यहाँ मैं आकुल
तुम आओ घर
......................................................
नदी के उस पार तुम, इस पार हम
छोड़ो, विदा दो
नहीं सम्भव है कि हम-तुम एक तट
पर हों, विदा दो
तनिक आँचल खोलकर स्मृति का
करो स्वीकार माला, मुद्रिका या
याद इससे ही करोगी आज की सरि
चन्द्रिका या
चांदनी का तीर मावस का हृदय
जैसे भिदा हो, विदा दो
वही मान्दोली मुझे दो
मैं अवश हूँ धड़कनों से
यह बनेगी प्यार की थपकी
मुझे पागल क्षणों में
स्वप्न-सा जीवन मिला दु:स्वप्न-सा
उसको बिता दो
मान्दोली=गले का आभूषण
......................................................
नदी किनारे
बैठ रेत पर
घने कदम्ब के तले
होगे बजा रहे
वंशी
तुम मेरे प्रिय साँवले
एक हाथ से दिया बारूँ
एक हाथ से आँखें पोंछूँ
सोचूँ
मुझसे भी होंगे क्या
बिरह ताप के जले
......................................................
किसने सरसों बोई
किसने बोई राई
मुंडाओं की सरसों
संथालों की राई
यह मेरे जीवन का जल
यह मेरे जीवन का जल
कमल-पात पर हिम-बूंदों-सा टलमल रे
कितना चंचल
इसीलिए तोखाता चल
पीता चल
गाता चल
चल रे चल
थोड़े ही दिन का यह छल
यह मेरे जीवन का जल
आने को कहना
पर आना न जाना
पर्वत की घाटियाँ जगीं, गूँजीं
बार-बार गूँजता बहाना
झरते साखू-वन में
दोपहरी अलसाई
ढलवानों पर
लेती रह-रह अंगड़ाई
हवा है कि है
केवल झुरमुर का गाना
बार-बार गूँजता बहाना
तुमने क्या नहीं देखा
आग-सी झलकती में
तुमने क्या नहीं देखा
बाढ़-सी उमड़ती में
नहीं, मुझे पहचाना
धूल भरी आँधी में
जानोगे तब जब
कुहरे-सी घिर जाऊँगी
मैं क्या हूँ मौसम
जो बार-बार आऊँगी !
......................................................
आछी के बन
आछी के बन
आछी के बन अगवारे
आछी के बन पिछवारे
आछी के बन पूरब के
आछी के बन पच्छिमवारे
महका मह-मह से रन-बन
आछी के बन
भोर हुई सपने-सा टूटा
पथ मंह-मंह का पीछे छूटा
अब कचमच धूप
आछी के बन
आछी के बन अगवारे
आछी के बन पिछवारे
आछी के बन पूरब के
आछी के बन पच्छिमवारे
महका मह-मह से रन-बन
आछी के बन
भोर हुई सपने-सा टूटा
पथ मंह-मंह का पीछे छूटा
अब कचमच धूप
हवाएँ सन सन
आछी के बन
.......................................................
पर्वत के ऊपर है वंशी
पर्वत के ऊपर है वंशी
नीचे मुरली
मेरी दोनों ओर धार है
धार नहीं प्रिय की पुकार है
मैं रेती-सी बंधी बीच में
बंदी होता मेरा प्यार है
मूढ़ बधिक के बंधन में
कसती मैं कुरली
नीचे मुरली
.......................................................
पर्वत के ऊपर है वंशी
नीचे मुरली
मेरी दोनों ओर धार है
धार नहीं प्रिय की पुकार है
मैं रेती-सी बंधी बीच में
बंदी होता मेरा प्यार है
मूढ़ बधिक के बंधन में
कसती मैं कुरली
नीचे मुरली
.......................................................
चिड़ियों ने पर्वत पर ...
चिड़ियों ने पर्वत पर घोंसला बनाया
दिन में रो रात-रात जी भर कर गाया
फिर पलाश फूले रंगते वन के छोर
रंग की लपट से छू जाती है कोर
आँखें भर आईं प्रिय मन यह भर आया
कोंपल के होंठों ने बाँसुरी बजाई
पिड़कुलियों ने सूनी दोपहर जगाई
पतझर ने आज कहाँ सोने मुझको दिया
तुड़े-मुड़े पत्तों ने खिड़की खटकाई
मन ने पिछले सपनों को फिर दुहराया
.......................................................
चिड़ियों ने पर्वत पर घोंसला बनाया
दिन में रो रात-रात जी भर कर गाया
फिर पलाश फूले रंगते वन के छोर
रंग की लपट से छू जाती है कोर
आँखें भर आईं प्रिय मन यह भर आया
कोंपल के होंठों ने बाँसुरी बजाई
पिड़कुलियों ने सूनी दोपहर जगाई
पतझर ने आज कहाँ सोने मुझको दिया
तुड़े-मुड़े पत्तों ने खिड़की खटकाई
मन ने पिछले सपनों को फिर दुहराया
.......................................................
अरी मेरी लालसे !
अरी मेरी लालसे !
अरी मेरी लालसे !
कहो क्या कर डाला
इन बबूल की बाहों में
इन बबूल की बाहों में
कदम्ब माला
......................................................
......................................................
नहीं छूटते सूख गए पत्ते
नहीं छूटते सूख गए पत्ते
खिजूर के
मैं भी प्रीत नहीं छोड़ूंगी
भूल तुम गए
.......................................................
नहीं छूटते सूख गए पत्ते
खिजूर के
मैं भी प्रीत नहीं छोड़ूंगी
भूल तुम गए
.......................................................
प्यार क्यों!
प्यार क्यों! अपार प्यार! सुधि मिट जाने दो
उसकी सुहानी याद अब मत आने दो
मोह-ममता को बांध साथ प्रेम-पत्रिका के
बहती नदी में अब छोड़ो, बह जाने दो
.......................................................
प्यार क्यों! अपार प्यार! सुधि मिट जाने दो
उसकी सुहानी याद अब मत आने दो
मोह-ममता को बांध साथ प्रेम-पत्रिका के
बहती नदी में अब छोड़ो, बह जाने दो
.......................................................
आधी रात
आधी रातबाग में पिड़कुल
कुकुर डुबुर स्वर
आधी रातबाग में पिड़कुल
कुकुर डुबुर स्वर
आधी रात
यहाँ मैं आकुल
तुम आओ घर
......................................................
नदी के उस पार तुम
नदी के उस पार तुम, इस पार हम
छोड़ो, विदा दो
नहीं सम्भव है कि हम-तुम एक तट
पर हों, विदा दो
तनिक आँचल खोलकर स्मृति का
करो स्वीकार माला, मुद्रिका या
याद इससे ही करोगी आज की सरि
चन्द्रिका या
चांदनी का तीर मावस का हृदय
जैसे भिदा हो, विदा दो
वही मान्दोली मुझे दो
मैं अवश हूँ धड़कनों से
यह बनेगी प्यार की थपकी
मुझे पागल क्षणों में
स्वप्न-सा जीवन मिला दु:स्वप्न-सा
उसको बिता दो
मान्दोली=गले का आभूषण
......................................................
यह मेरे प्रिय का मंडप है
यह मेरे प्रिय का मंडप है
इसको मत होने दो सूना
चाहे मन कितना हो सूना
उठता हो भीतर से रोना
पर झांझों, मादल, वंशी के
स्वर पर हमें निछावर होना
जय हो यहाँ रसिक की जय हो
मंडप प्रिय का शोभामय हो
मेरे भाग दिये की बाती
मुझको केवल जलते जाना
यह मेरे प्रिय का मंडप है
......................................................
यह मेरे प्रिय का मंडप है
इसको मत होने दो सूना
चाहे मन कितना हो सूना
उठता हो भीतर से रोना
पर झांझों, मादल, वंशी के
स्वर पर हमें निछावर होना
जय हो यहाँ रसिक की जय हो
मंडप प्रिय का शोभामय हो
मेरे भाग दिये की बाती
मुझको केवल जलते जाना
यह मेरे प्रिय का मंडप है
......................................................
गाँव के किनारे है...
गाँव के किनारे है बरगद का पेड़
बरगद की झूलती जटाएँ
कैसी रे झूलती जटाएँ
झूलें बस भूमि तक न आएँ
ऐसे ही लड़के इस गाँव के
कहने को पास चले आएँ
बाहें फैलाएँ
झुकते आएँमिलने के पहले पर
लौट-लौट जाएँ
बरगद की झूलती जटाएँ
.......................................................
गाँव के किनारे है बरगद का पेड़
बरगद की झूलती जटाएँ
कैसी रे झूलती जटाएँ
झूलें बस भूमि तक न आएँ
ऐसे ही लड़के इस गाँव के
कहने को पास चले आएँ
बाहें फैलाएँ
झुकते आएँमिलने के पहले पर
लौट-लौट जाएँ
बरगद की झूलती जटाएँ
.......................................................
बन्धन से एक साथ हारे
बन्धन से एक साथ हारे
हम दोनों एक साथ प्यारे
सेमल और ताड़ वहाँ
मकड़े ने साधे
वैसे ही प्रेम हमें
जीवन में बांधे
हम हुए तुम्हारे प्रिय
तुम हुए हमारे
.......................................................
बन्धन से एक साथ हारे
हम दोनों एक साथ प्यारे
सेमल और ताड़ वहाँ
मकड़े ने साधे
वैसे ही प्रेम हमें
जीवन में बांधे
हम हुए तुम्हारे प्रिय
तुम हुए हमारे
.......................................................
सिन्दूरी आभा में
सिन्दूरी आभा में
क्षण भर होकर निढाल
दुग्ध पुष्प-सी उज्ज्वल
मड़वे में हुई लाल
ब्याही मत समझो
मैं क्वांरी हूँ नन्दलाल
......................................................
सिन्दूरी आभा में
क्षण भर होकर निढाल
दुग्ध पुष्प-सी उज्ज्वल
मड़वे में हुई लाल
ब्याही मत समझो
मैं क्वांरी हूँ नन्दलाल
......................................................
मैं वंशी...
मैं वंशी
माँ हमारी दूध का तरु
बाप बादल
औ' बहन हर बोल पर
बजती हुई मादल
उतर आ हँसी
कि मैं वंशी
.......................................................
मैं वंशी
माँ हमारी दूध का तरु
बाप बादल
औ' बहन हर बोल पर
बजती हुई मादल
उतर आ हँसी
कि मैं वंशी
.......................................................
सब लोग देखते आग...
सब लोग देखते आग लगी त्रिकुटी की
रे कौन देखता आग लगी इस जी की
मैं अपने भीतर जलती
जैसे बोरसी की आग
धधक पात पतझर के
जल जाते, जंगल के भाग
सब लोग देखते आग लगी त्रिकुटी की
......................................................
सब लोग देखते आग लगी त्रिकुटी की
रे कौन देखता आग लगी इस जी की
मैं अपने भीतर जलती
जैसे बोरसी की आग
धधक पात पतझर के
जल जाते, जंगल के भाग
सब लोग देखते आग लगी त्रिकुटी की
......................................................
जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ!
जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ!
मुझे छिपा आँचल में
जाड़ा लगता है क्या भीतर आ जाऊँ ?
फूलों की मह मह-सी रानी ओ!
मुझे ढाँक बालों में
बादल घिरते हैं क्या भीतर आ जाऊँ ?
मुझे छिपा
मुझे ढाँक
आँचल से बालों से
जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ!
.......................................................
जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ!
मुझे छिपा आँचल में
जाड़ा लगता है क्या भीतर आ जाऊँ ?
फूलों की मह मह-सी रानी ओ!
मुझे ढाँक बालों में
बादल घिरते हैं क्या भीतर आ जाऊँ ?
मुझे छिपा
मुझे ढाँक
आँचल से बालों से
जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ!
.......................................................
खिले-फूल से दिन यौवन के--
खिले-फूल से दिन यौवन के--
ऎसे दिन आए हैं
नए पात सेगात सुहाए
हंस सिमट
पाँवों में आए
तेरे साथ सुगंध बनों की
ले ये दिन आए हैं
खिले फूल से दिन यौवन के--
......................................................
खिले-फूल से दिन यौवन के--
ऎसे दिन आए हैं
नए पात सेगात सुहाए
हंस सिमट
पाँवों में आए
तेरे साथ सुगंध बनों की
ले ये दिन आए हैं
खिले फूल से दिन यौवन के--
......................................................
जंगल में आग ...
जंगल में आग लपट है झर-झर
राजा की डब-डब है पोखर
जल जाऊँडूब मरूँ
कैसे यह बिरह तरूँ
दिन-दिन भररात-रात
बजता है मादल
.......................................................
जंगल में आग लपट है झर-झर
राजा की डब-डब है पोखर
जल जाऊँडूब मरूँ
कैसे यह बिरह तरूँ
दिन-दिन भररात-रात
बजता है मादल
.......................................................
नदी किनारे
नदी किनारे
बैठ रेत पर
घने कदम्ब के तले
होगे बजा रहे
वंशी
तुम मेरे प्रिय साँवले
एक हाथ से दिया बारूँ
एक हाथ से आँखें पोंछूँ
सोचूँ
मुझसे भी होंगे क्या
बिरह ताप के जले
......................................................
धान के ये फूल
धान के ये फूल
ये आनन्द के उपहार
ये कपासी फूल
तेरे नित्य के शृंगार
सोन रंगी फूल हुन्दी-
सी जवानी खिली
जामुनी कोंपल सरीखी
देह चांदी झिली
फूल कद्दू के खिले
यह देह लहराई--
लहलहाती लता-सी
तुम गदबदा आई
कहाँ से पा गई प्रिय
ये अनछुए सब साज
और पीतल ठनकने
सी खनकती आवाज़ ?
कौन उत्सव आज
.......................................................
धान के ये फूल
ये आनन्द के उपहार
ये कपासी फूल
तेरे नित्य के शृंगार
सोन रंगी फूल हुन्दी-
सी जवानी खिली
जामुनी कोंपल सरीखी
देह चांदी झिली
फूल कद्दू के खिले
यह देह लहराई--
लहलहाती लता-सी
तुम गदबदा आई
कहाँ से पा गई प्रिय
ये अनछुए सब साज
और पीतल ठनकने
सी खनकती आवाज़ ?
कौन उत्सव आज
.......................................................
पर्वत-पर्वत पर सरसों
पर्वत-पर्वत पर सरसों
घाटी-घाटी राई
पर्वत-पर्वत पर सरसों
घाटी-घाटी राई
किसने सरसों बोई
किसने बोई राई
मुंडाओं की सरसों
संथालों की राई
एक हाथ की मुंदरी
एक पैर की गूंगी
किससे क्या लेकर मैं
किसको क्या दूंगी ?
.......................................................
एक पैर की गूंगी
किससे क्या लेकर मैं
किसको क्या दूंगी ?
.......................................................
यह मेरे जीवन का जल
कमल-पात पर हिम-बूंदों-सा टलमल रे
कितना चंचल
इसीलिए तोखाता चल
पीता चल
गाता चल
चल रे चल
थोड़े ही दिन का यह छल
यह मेरे जीवन का जल
ताराओं के हास से
चन्दरिमा के पास से
आया है आकाश से
पा सकें तो पा सकें
जा रहा है हाथ से
हो रहा देखो ओझल
यह मेरे जीवन का जल
......................................................
चन्दरिमा के पास से
आया है आकाश से
पा सकें तो पा सकें
जा रहा है हाथ से
हो रहा देखो ओझल
यह मेरे जीवन का जल
......................................................
सीखा कहाँ से रोना
सीखा कहाँ से रोना
धर गाल हाथ पर तुम
आँसू बहा रहे हो
लगता हमें है ऎसा
तुम आदमी नहीं हो
भैंसों को आगे ठेलो
हल डोर उठो ले लो
फिर गूँजे स्वर तुम्हारा
हेलो लो हेलो हेलो
धरती तुम्हारी प्यारी
दे देगी तुम्हें सोना
सीखा कहाँ से रोना ?
.....................................................
सीखा कहाँ से रोना
धर गाल हाथ पर तुम
आँसू बहा रहे हो
लगता हमें है ऎसा
तुम आदमी नहीं हो
भैंसों को आगे ठेलो
हल डोर उठो ले लो
फिर गूँजे स्वर तुम्हारा
हेलो लो हेलो हेलो
धरती तुम्हारी प्यारी
दे देगी तुम्हें सोना
सीखा कहाँ से रोना ?
.....................................................
बन मन में
बन मन मेंमन बन में
गए और खो गए
हम पतझड़ के-से
अब फागुन के हो गए
कुचले फन-सा तन-मन
बीन बजाता फागुन
द्वार बनेंगे झूले
ताल बनेंगे आंगन
सींच बीज वे जो
पिछले दिन थे बो गए
फागुन के हो गए
.......................................................
बन मन मेंमन बन में
गए और खो गए
हम पतझड़ के-से
अब फागुन के हो गए
कुचले फन-सा तन-मन
बीन बजाता फागुन
द्वार बनेंगे झूले
ताल बनेंगे आंगन
सींच बीज वे जो
पिछले दिन थे बो गए
फागुन के हो गए
.......................................................
पीतल की वंशी
पीतल की वंशी
सतरंगी सारंगी
बजा नहीं, बजा नहीं
ओ, मेरे जोगी
मेरे भीतर वंशी
बन के चौरे सारंगी
हर चौरे सारंगी
पूछेंगे वे तो
क्या उत्तर मैं दूंगी!
बुला नहीं, बुला नहीं
और मेरे जोगी
.......................................................
पीतल की वंशी
सतरंगी सारंगी
बजा नहीं, बजा नहीं
ओ, मेरे जोगी
मेरे भीतर वंशी
बन के चौरे सारंगी
हर चौरे सारंगी
पूछेंगे वे तो
क्या उत्तर मैं दूंगी!
बुला नहीं, बुला नहीं
और मेरे जोगी
.......................................................
मोर पाँखें...
मोर पाँखें, मोर पाँखें, मोर पाँखें
दिशाओं की!
हर नगर
हर गाँव पर
आशीष सी
झुक गईं आके
मोर पाँखें!
दिशाओं की!
गाँव के गोइड़ेखड़ा जोगी,
झुलाता झूल वासन्ती
मोरछल से झाड़ता
मंत्रित गगन की धूल वासन्ती
खुल गईं लो
खुल गईं
कब की मुंदी आँखें
दिशाओं की!
......................................................
मोर पाँखें, मोर पाँखें, मोर पाँखें
दिशाओं की!
हर नगर
हर गाँव पर
आशीष सी
झुक गईं आके
मोर पाँखें!
दिशाओं की!
गाँव के गोइड़ेखड़ा जोगी,
झुलाता झूल वासन्ती
मोरछल से झाड़ता
मंत्रित गगन की धूल वासन्ती
खुल गईं लो
खुल गईं
कब की मुंदी आँखें
दिशाओं की!
......................................................
तपरिसा के...
तपरिसा केइचा के ये फूल बांधे
पाँव में बिछिया
बनी राई
ढाल की सरसों
बनी कंगन
लरज आई
और सब पर
खिले साखू फूल
सो यह रूप
काजल केश, कांधे
फूल बांधे
......................................................
तपरिसा केइचा के ये फूल बांधे
पाँव में बिछिया
बनी राई
ढाल की सरसों
बनी कंगन
लरज आई
और सब पर
खिले साखू फूल
सो यह रूप
काजल केश, कांधे
फूल बांधे
......................................................
आने को कहना
आने को कहना
पर आना न जाना
पर्वत की घाटियाँ जगीं, गूँजीं
बार-बार गूँजता बहाना
झरते साखू-वन में
दोपहरी अलसाई
ढलवानों पर
लेती रह-रह अंगड़ाई
हवा है कि है
केवल झुरमुर का गाना
बार-बार गूँजता बहाना
.......................................................
नन्दन-वन की कोयल
नन्दन-वन की कोयल
आई हो गाँव में
जंगल से जंगल के बीच
दिये-सा आंगन
पास बुलाते तुमको
द्वार-दिये, घर-आंगन
डाल पर न बैठो
बंधन होंगे पाँव में
आई हो गाँव में
......................................................
नन्दन-वन की कोयल
आई हो गाँव में
जंगल से जंगल के बीच
दिये-सा आंगन
पास बुलाते तुमको
द्वार-दिये, घर-आंगन
डाल पर न बैठो
बंधन होंगे पाँव में
आई हो गाँव में
......................................................
देह यह बन जाए केवल पाँव
देह यह बन जाए केवल पाँव
केवल पाँव
अब न रोकेंगे तुम्हें घर-गाँव
घन लखराँव
पाँव ही बन जाएँ
तेरी छाँव
ये अधूरे गीत
टूटे छन्द
जूठे भाव
इन्हें लेकर खड़ें कैसे रहें
बीच दुराव
.......................................................
देह यह बन जाए केवल पाँव
केवल पाँव
अब न रोकेंगे तुम्हें घर-गाँव
घन लखराँव
पाँव ही बन जाएँ
तेरी छाँव
ये अधूरे गीत
टूटे छन्द
जूठे भाव
इन्हें लेकर खड़ें कैसे रहें
बीच दुराव
.......................................................
आछी के बन
आछी के बन
आछी के बन अगवारे
आछी के बन पिछवारे
आछी के बन पूरब के
आछी के बन पच्छिमवारे
महका मह-मह से रन-बन
आछी के बन
भोर हुई सपने-सा टूटा
पथ मंह-मंह का पीछे छूटा
अब कचमच धूप
हवाएँ सन सन
आछी के बन
..............
[श्रेणी : नवगीत संग्रह । ठाकुरप्रसाद सिंह ]
आछी के बन
आछी के बन अगवारे
आछी के बन पिछवारे
आछी के बन पूरब के
आछी के बन पच्छिमवारे
महका मह-मह से रन-बन
आछी के बन
भोर हुई सपने-सा टूटा
पथ मंह-मंह का पीछे छूटा
अब कचमच धूप
हवाएँ सन सन
आछी के बन
..............
[श्रेणी : नवगीत संग्रह । ठाकुरप्रसाद सिंह ]