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वीरेंद्र आस्तिक |
गीत गा पाया नहीं
आज भी इस फ़्लैट में
तू ढूंढती छप्पर
जूठे बासन माजने को
जिद्द करती है
आज भी बासी बची
रोटी न मिलने पर
बहू से दिन भर नहीं
तू बात करती है
इस गरीबी से कहाँ है मुक्ति
फालिज से बचा पाया नहीं
काम करते अब न चश्मे
कान कम सुनते
बात करती ज्योंकि सब
सुनती समझती है
लड़खड़ाती है, कभी गिरती
चुटा जाती है
दो सहारा तो छिटक
इनकार करती है
मैं न सेवा कर सका अर्थात्
असली धन कमा पाया नहीं
जानता हूँ आज
यह विक्षिप्त तेरी
क्यों हवा में
एक चांटा मरती है
एक रोटी जो कभी
तिल भर जली थी
वो जली क्यों? यह
पिता से पूछती है
उन डरी आँखों में अपना
भीगता बचपन भुला पाया नहीं
[ संकलन : माँ । वीरेंद्र आस्तिक ]