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विजेंद्र |
दरअसल 'मित्र संवाद' कवि केदार बाबू तथा आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के बीच 1935 से 1991 तक हुए पत्राचार का संकलन है। यह परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद से 1992 में प्रकाशित हुआ है। इसकी भूमिका में डॉ. शर्मा ने बताया है कि इस संवाद का प्रारंभ 1935 से हुआ है। 1942 तक अकेले डॉ. शर्मा ही बोलते रहे हैं। पर कुछ न कुछ केदार बाबू को ऐसा बताते रहे, जिससे उनकी कविता को बल मिले। उनका मानना है कि संवाद एक ही तरह के लोगों के बीच हो तो रुचिकर न होगा। यानी 'राग-विस्तार' के लिए 'वादी के संवादी स्वर' जरूरी है। डॉ. शर्मा केदार बाबू को 'लिरिक कवि' मानते हैं। यदि केदार बाबू तथा डॉ. शर्मा की साहित्यिक बनक का अध्ययन करना हो तो यह कृति एक क्लासिक है। मुक्तछंद केदार बाबू की 'जान है'। तुकांत में वह अपने काव्य की 'हत्या' देखते हैं। डॉ. शर्मा छंद पर जोर देते हैं। केदार बाबू ने डॉ. शर्मा से कहा कि 'तुकांत' की उनकी सलाह 'पसंद तो है'। 'ग्राह्य नहीं'। तुकांत को केदार बाबू 'दगाबाज' कहते हैं।
3 जनवरी 1936 के एक पत्र में केदार बाबू को वह सलाह देते हैं कि कवि 'दूसरों को भी जानने की चेष्टा करें।' खुद को जानकर दूसरे को जानना, फिर खुद को परखना। किसी भी कवि को इस परस्पर संवेदन-संज्ञान की, द्वंद्वमय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। यहाँ अन्य से अभिप्राय व्यक्ति से ही नहीं है। बल्कि अपने परिवेश से भी है। डॉ. शर्मा मानते हैं कि कवि को अपनी 'भाषा सुधारने के लिए गद्य की पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए। मैं यहाँ इतना जोड़ना चाहूँगा कि कवि को अपनी 'आत्ममुग्धता' तोड़ने के लिए वैचारिक गद्य द्वारा खुलकर संघर्ष भी करना जरूरी है। 1946 के आसपास डॉ. शर्मा केदार बाबू को सुझाते हैं कि वह 'चीजों को दोहरा रहे हैं।' यानी 'निम्न मध्यवर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति विभिन्न प्रतीकों से प्रकट हो रही है लेकिन उस, अशरीरी सहानुभूति से वह आगे नहीं बढ़ रहे।' वह बताते हैं कि उनकी लोकधर्मी कविताएँ 'चंद्रगहना', 'काटो-काटो करबी' आदि में यह 'सहानुभूति सशरीर' है। संकेत है कि कविता को अमूर्तन से बचाने की जरूरत है। वह मानते हैं कि 'ठोस अनुभव' के लिए कवि को जनता के करीब जाना जरूरी है। क्योंकि इस समय उन्हें हिंदी कविता में ठहराव' आ रहा लगता है। डॉ. शर्मा कविता में 'सपाट बयानी' की जगह 'संश्लिष्ट ऐंद्रियता तथा गहन भावबोध' पर जोर देते हैं। इसके लिए उन्होंने केदार बाबू को अंग्रेजी के प्रख्यात कवि जॉन कीट्स की कविता 'ओड टू द नाइटइंगेल' को ध्यान से पढ़ने का आग्रह किया है। उनके अनुसार यहाँ अनेक प्रकार के इंद्रियबोध जाग्रत होते हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द आदि। गहन ऐंद्रिय संवेदनों की चरमावस्था यहाँ है। अपने पत्रों में यह बात उन्होंने बार-बार दोहराई है। ध्यान देने की बात है कि किसी भी उत्कृष्ट कविता के लिए समृद्ध ऐंद्रियता एक कसौटी है। कीट्स में इंद्रियबोध तो सघन है पर उसके विचार मध्यकालीन हैं। आज की कविता जिस सपाटबयानी के बंजर से गुजर रही है उससे मुक्त होने के लिए यह एक विकल्प है।
केदार बाबू की कविताओं का एक प्रमुख गुण वह उसे 'लोक कलाओं के करीब होना मानते हैं। किसी भी कविता को लोक तथा लोक कलाओं के करीब होना उसे पाठकों में अधिक संप्रेषणीय बनाता है। वैसे भी कविता में लगभग सभी ललित कलाओं का सामंजस्य होता ही है। डॉ. शर्मा ने केदार बाबू को सलाह दी है कि 'किसी की राय की चिंता किए बिना वह 'भूमिसुतों' की कविता लिखें। उन्हें यहाँ के कठिन श्रमी किसान में ही 'धरती पुत्र' दिखाई देता है। संकेत है कि आज की कविता का खनिजदल हम श्रमी किसान तथा श्रमिकों से ही उत्खनित करेंगे। लोकतंत्र में यह जरूरी है। सार्थक भी। क्या आज के कवि भी इससे कुछ ग्रहण कर पाएँगे? यह सवाल बुनियादी है कि लोकतंत्र में कविता का क्या रूप हो! कवि कर्म का क्या दायित्व! कविता सहजता से जन्मे। उसके लिए उन्होंने अंग्रेज़ी का उदाहरण दिया है, 'पोइट्री शुड कम लाइक लीव्ज टू ए ट्री और इट हैड बेटर नाट कम एट आल।' अर्थात् कविता ऐसे फूटे जैसे पेड़ से पत्तियाँ अन्यथा उसका सृजन हो ही नहीं। डॉ. शर्मा बार-बार 'अनुभूति को रिफ्रेश' करने की बात कहते हैं। साथ ही भाषा, इमेजरी, छंद वगैरह पर और अधिक मेहनत करने की बात भी। वह कविता को 'सुंदर कल' मानते हैं।
वह कविता में यथार्थ का रंग, स्थानीय आदमियों की उभरती शक्ति, सादगी आदि पसंद करते हैं। डॉ. शर्मा 'लोक कवि' को बहुत महत्व देते हैं। केदार बाबू की कविता के बारे में कहते हैं कि, 'तुम्हारी कविताओं की भाषा, शैली, व्यंजना का ढंग सब ऐसे हैं जो लोक कवि को ही संभव है और संसार में थोड़े बहुत बड़े-बड़े कवियों को ही सुलभ होते हैं, इनमें जहाँ-तहाँ एकाध पंक्ति में कुछ भारी भरकम शब्द आ जाते हैं जो 'लोक रस में बाधक' होते हैं। इस दृष्टि से मुक्तिबोध की काव्य भाषा के बारे में कई सवाल उठाए जा सकते हैं।
जैसा पहले भी कहा है कि वह कविता में इंद्रियबोध को उत्कृष्ट कविता की कसौटी मानते हैं। उसी से जुड़ी बात है गहन भावबोध। केदार बाबू की कविता के बारे में कहा है कि 'तुम्हारा इंद्रियबोध तगड़ा है, वैसा ही दृढ़ भावबोध भी। पर इन चीजों के साथ 'विचार और चिंतन की गहराई' होना बहुत जरूरी है। वह केदार बाबू में नहीं हैं। ऐसे गुण दाँते, शेक्सपियर आदि उच्चतम कवियों में हैं। इसलिए केदार को वह 'सहज कवि' मानते हैं। दार्शनिक कवि नहीं। फिर भी वह उन्हें 'आधुनिक हिंदी में नई पीढ़ी और दिनकर-बच्चन वाली पुरानी पीढ़ी दोनों में ही श्रेष्ठ कवि' माना है। कहा है कि 'इंद्रियबोध के टक्कर की विचार गरिमा यदि होती तो केदार शेक्सपियर और दाँते की तरह विश्ववन्द्य' हो जाते। इससे साफ है कि कविता में समृद्ध इंद्रियबोध तथा सघन भावबोध के अनुकूल विचार और चिंतन की गहनता नहीं है तो कविता उत्कृष्टता की अपेक्षित ऊँचाइयाँ नहीं छू सकती।
1968 के आसपास उन्हें लगा कि छायावाद के बाद हिंदी कविता को विकसित करने का 'श्रेय प्रगतिशील कवियों' को है। इसमें उन्होंने केदार बाबू की भूमिका को 'प्रमुख' माना है। नामवर सिंह को डॉ. शर्मा ने 'नई कविता का नया वकील' बताया है।' 'कविता के नये प्रतिमान' पर बड़ी सार्थक टिप्पणी करते हुए उन्होंने इसे 'प्रगतिशील कविता के समग्र विकास को दरकिनार' करने वाली पुस्तक कहा है। ध्यान रहे उक्त पुस्तक 1968 में ही प्रकाशित हुई है। डॉ. शर्मा ने ही सबसे पहले इस पुस्तक को प्रगतिशील कविता के विरोध में खड़े होने वाली पुस्तक कहकर बुनियादी सवाल उठाया था। यह भी संकेत दिया है कि नरेंद्र शर्मा, शिवमंगल सिंह 'सुमन', वीरेश्वर आदि उस समय के यशस्वी कवि या तो 'खामोश' हो गए या 'दल बदल' कर निर्जीव। पर केदार बाबू को उन्होंने 'मैदान में डटे' रहने वाला कवि कहा है। इससे उन्हें बेहद प्रसन्नता भी है। संकेत है कि कवि हो या आलोचक 'अवसरवाद' तथा 'विचारधारा' से पथभ्रष्ट होकर वह निर्जीव, तुच्छ तथा प्रभावहीन बनता है। बाद में इतिहास भी उसे नकार देता है। उनके अनुसार नामवर सिंह के 'अवसरवादी रुझान' तथा 'मार्क्सवाद से पथभ्रष्ट' ने जनवादी-प्रगतिशील कविता तथा समीक्षा दोनों का ही क्षरण किया है।
डॉ. शर्मा राजनीतिक संकट को सांस्कृतिक संकट से जोड़कर देखते हैं। पर किसी भी संकट में वह सृजन को 'निर्बाध' मानते हैं। कहा है कि 'हिंदुस्तान में राजनीतिक संकट के साथ सांस्कृतिक संकट भी है। फिर भी 'कलम में बड़ी ताकत' है। 'संकट आएँगे-जाएँगे। कलम की उपज बनी रहेगी।'
वह आज के वैज्ञानिक युग में भी 'विवेक' के साथ 'सहृदयता' को ज्यादा महत्व देते हैं। कहा है कि 'विवेक तो बहुतों के पास है। 'सहृदयता की पूँजी' बहुत कम लोगों के पास रह गई है। इसी के सहारे भविष्य को देखते हैं, जीते हैं।
1969 आते-आते उन्हें अनेक चिंताएँ सताने लगीं। फिर भी 'दुख और चिंताओं से ऊपर उठकर' अपना रचनाकर्म किया। किसी भी रचनाकार को यह बात सीखने की है - प्रतिकूल स्थिति में भी अपनी सृजन क्षमताओं को संतुलित बनाए रखना। शेक्सपियर के संदर्भ में कीट्स ने ऐसी क्षमता को 'निगेटिव कैपेबिलिटी' (निषेधी क्षमता) कहा है। शेक्सपियर में यह क्षमता शिखर पर है। कालिदास ने इसे सृजन के लिए 'समाधि अवस्था' कहा है। जिन महान लेखकों में यह 'निषेधी क्षमता' होती है वे जीवन में पथभ्रष्ट भी नहीं होते। न उन्हें तुच्छताएँ आकर्षित करती हैं। उनका जीवन एक बेहतरीन इंसान की तरह अनुकरणीय होता है। सृजन उनका उत्प्रेरक। इसके लिए जीवन में त्याग, धैर्य तथा बड़े सामाजिक सरोकारों के प्रति अवचिलित दृढ़ता जरूरी है। उन्होंने बड़ी मार्मिकता से कहा है कि किसी महान लेखन को यह समाज उसके जीवन काल में कितना तिरस्कृत करता है। उसकी घोर उपेक्षा करता है। पर मृत्यु होने पर 'उसी को पूजने' लगता है। 1969 के अपने एक पत्र में उन्होंने निराला के संदर्भ में यह विचार व्यक्त किए हैं। कहा है, 'विश्वविद्यालयों के द्वारपाल निराला के लिए लाठी लिए खड़े रहे कि कहीं भीतर न घुस आएँ। जब वह न रहे तब 'उन्हें संत और ऋषि' बना कर पूजने लगे। सत्य से आँखें मिलाने का साहस उनमें नहीं है।' उनसे बहुत महत्वपूर्ण बात सीखने की है उनका प्रकृति प्रेम। पूरे पत्रों में ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं जहाँ उनका सहज प्रकृति प्रेम खुलकर सामने आया है। यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ, जैसे 1969 के आसपास उन्होंने केदार बाबू को एक पत्र में लिखा है, 'हवा में ठंडक है, धूप में वह तेजी नहीं, ढलते सूरज का सोना और गाढ़ा हो गया है, कमरे के बाहर सवेरे हरसिंगार के फूल बिछ जाते हैं। शरद ऋतु आ गई - तुम्हारी कविता में सूर्य की तरह - वसंत की मादकता से दूर, मन की धरती पर दमकते शांत प्रकाश की तरह। केन का थिराया पानी इस समय बहुत अच्छा लगता होगा।'
1970 के आसपास उन्होंने महाकवि भवभूति के काव्य गुण खोजकर उन्हें शेक्सपियर, दांते तथा मिल्टन के समकक्ष बैठाया है। यहाँ संकेत है हिंदी कवि को अपने महान क्लासिक्स को जानना, समझना और गुनना एक अनिवार्य शर्त है। कहा है कि केवल भवभूति को पढ़ने के लिए मनुष्य को संस्कृत जानना चाहिए।
1971 के आसपास वह निराला की कविताओं से जूझ रहे थे। लिखा है कि, 'सवेरे से दोपहर तक निराला के साथ रहते हैं। उनकी कविताएँ पढ़ते हैं। कुछ लिखते हैं। अक्सर दूसरे दिन उसे काट देते हैं। खीजते हैं, रीझते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं, इससे लगता है वह गद्य के रचाव तथा स्थापत्य को लेकर उतने ही चिंतित हैं जितने कविता के शिल्प तथा संरचना को। 1972 में वह केदार बाबू को वसंत की बधाई देते हुए एक बार फिर प्रकृति की ओर लौटते हैं, 'वसंत की बधाई लो। बरामदे में आधी धूप, आधी छाया में तुम्हें कार्ड लिख रहे हैं। कार्ड लिखते समय याद आया, इस बार खेतों में सरसों देखने नहीं गए। आज जाएँगे। दो साल से गेंदे भी नहीं लगाए। गुलाब अलबत्ता गहगहा रहा है।' इन दिनों वह भाषा विज्ञान से जूझ रहे थे। इसी समय के एक पत्र में उन्होंने फिर प्रकृति के करीब जाने की ललक व्यक्त की है। उन्हें 'सरसों के फूल' और 'गेंदा' बेहद पसंद हैं। वह आगरा-मथुरा रोड के घने पेड़ों से 'कोयल की आवाज' सुनते हैं। सामने सड़क पर 'अमलतास की पीली डालें' कहीं भीतरी आग से दमक उठती हैं। 'गुलमोहर के लाल झण्डे आसमान की तरफ उड़ने लगते हैं।' इस उम्र में वह अपने प्रेम को अब 'लपटहीन' बताते हैं। वह 'निर्धूम' है। पर उसकी 'दहक' बिना कहे सुने चौबीस घंटे-प्रतिक्षण-अनुभव करते हैं। सो कर उठने पर एक दूसरे का मुँह देकर समझ जाते हैं- कैसी नींद आई। वह इस उम्र में चाहते हैं कुछ ऐसा लिखना, 'जिसमें मनुष्य के मन की गहराई दिखाई दे। पर लिखने से पहले वह उस भाषा को समझना चाहते हैं जिसमें उसे लिखना है। बस यह आखिरी साल - फिर विदा भाषाविज्ञान। विदा आलोचना। तब फिर क्या लिखेंगे। कहते हैं कि अब वह उसे लिखेंगे, 'जिसमें हिंदी भाषा का छिपा हुआ सौंदर्य, उसकी भाव शक्ति उजागर हो'।
अब 1972 के आसपास वह जिस्मानी तौर पर कुछ शिथिल अनुभव करने लगे हैं। दाँत बोल चुके हैं। 'हडि्डयों के जोड़ तो दुरुस्त' हैं, पर पैरों की नसें उभर आई हैं। चलने में दर्द होने लगता है। चेहरे पर बहुत तो नहीं है बुढ़ापा, पर दाढ़ी की खाल 'नापसंद ढंग से ढीली' हो गई है। भाषाविज्ञान के अध्ययन में जुटने को उन्होंने 'एक तिलस्मी खोह में' फँस जाना कहा है।
वह चाहते हैं केदार बाबू उनके पास आएँ। कहा है कि 'भाषाविज्ञान की बातें न करेंगे, बस कविता पढ़ेंगे। गुनेंगे, सुनेंगे। इससे लगता है कि जब सब चीज से तबियत ऊबने लगती है तो हम कविता की ओर ही लौटते हैं। कैसा जादू है कविता में। डॉ. शर्मा ने चाहे जो लिखा। मन कविता में ही रमा है।
1973 के आसपास डॉ. शर्मा 'निराला की साहित्य साधना' के तृतीय खण्ड से जूझ रहे हैं। फिर भी केदार बाबू को लिखते हैं कि 'ढलते सूरज की खूबसूरती गजब' की होती है। खासकर इन (नवंबर) दिनों में। केदार बाबू से कहा, तुम 'ऐसे ही जियो, बहुत दिन जियो, खूब लिखो, हर सबेरे नई आग लेकर'। वह प्रेम और कविता दोनों को 'आग' के रूपकों तथा बिंबों से समझते समझाते हैं। आँच से ही ऋग्वेद की प्रथम ऋचा भी शुरू होती है - 'अग्निम् ईले पुरोहितम्'। अग्नि चेतना का सर्वोत्तम रूप है, इसमें क्रांतिदर्शिता निहित है। लेखक का 'विराट विजन'। सृजन-सक्षम वाणी का तेज।
1974 आते-आते भाषाविज्ञान से ऊब होने पर वह तुलसी पढ़ते हैं। कहा है कि राम-लछिमन-भरत-सीता-हनुमान से बहुत अच्छे लगते हैं तुलसीदास। सतह पर काफी सेवार बहता दिखाई देता है। नीचे बहुत जोरदार रूढ़ियों की चट्टानें टकराती हुई धारा है। 'लोक को न डर परलोक को न सोच देव सेवा न सहाय गर्व धाम को, न धन को' इस उक्ति में सभी रूढ़ियों के ऊपर तुलसी की कविता धारा बह रही है। जब वह 'भावातिरेक' में होते हैं तब उनके मन के साथ उनका शरीर, शरीर का रोम-रोम भाव में डूब जाता है। 'सजल नयन गदगद गिरा गहवर मन पुलक शरीर'। एक पंक्ति में भावातिरेक का ऐसा चित्रण दूसरी जगह नहीं देखा। 1974 के आसपास वह कहते हैं कि 'दुनिया बदलने के लिए कलम काफी' नहीं है। क्या करें! बुढ़ापा आया नहीं तो आ रहा है। लिखने के अलावा और कुछ करने के काबिल रहे नहीं। खैर दुनिया बदलने वाले और भी हैं और अबेर-सबेर जागेंगे, जोर लगाएँगे ही... । 'इन्हीं दिनों उन्होंने भाषा को 'मनुष्य की अर्जित संपत्ति' कहा है। उसकी सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण अंग। उसके सांस्कृतिक विकास का महत्वपूर्ण उपकरण बताया है कि तीन साल से भाषाविज्ञान के काम में लगे हैं और अभी साल दो साल और लगना पड़ेगा। अब शरीर पहले से दुर्बल हैं। प्रतिदिन किसी अँधेरे कोने में नया प्रकाश देखकर वह विह्वल हो उठते हैं। 'अयोध्याकाण्ड के भरत' जैसे दशा अपनी बताई है। इन्हीं दिनों उन्होंने 'केदार' शब्द की व्युत्पत्ति केदार बाबू को बताई। अनेक द्रविड़ भाषाओं में 'केत' या 'केद' (जोती बोई जाने वाली जमीन) खेत को कहते हैं। उसका बहुवचन रूप है 'केदार'।
1974 के आसपास केदार बाबू ने डॉ. शर्मा को लिखा कि बहुत यत्न के बाद भी वह 'बहुत अच्छी रचनाएँ' क्यों नहीं दे पाते। उन्होंने इसके लिए अपने 'दिमाग की कमजोरी' को जिम्मेदार माना है। या फिर 'चीजों को न पकड़ पाना' या शायद 'भाषा की कमी'। इससे बहुत कह नहीं पाता। इस आत्मालोचन पर उन्होंने केदार बाबू को बधाई दी। उन्हें भरोसा दिलाया कि अब वह 'पहले से और अच्छी' यानी पहली रचनाओं से बढ़कर कविताएँ लिखेंगे। उनका संकेत है कि एक जागरूक कवि के लिए निर्मम आत्मालोचन करते रहना उसकी रचना प्रक्रिया का जैविक हिस्सा होना चाहिए। बाद में केदार बाबू को 'सहज कवि' बताया है। यह भी कि वह अपने 'समय में अद्वितीय' हैं। उन्होंने केदार बाबू में न तो दिमाग की कमजोरी मानी न भाषा की। उन्होंने कहा कि मन की कितनी पर्तें खुलेंगी, आगे क्या दिखाई देगा कोई कवि नहीं कह सकता।
हिंदी में अनेक बड़े-छोटे ऐसे अकादमिक आलोचक हैं जो प्रकृति के सान्निध्य को कविता में न तो जरूरी मानते हैं न उसकी चर्चा करते हैं। क्या यही वजह नहीं कि हिंदी की अधिकांश कविता इकहरेपन से जूझ रही है। कविता के प्रतिमानों में प्रकृति को भी श्रेष्ठ कविता का एक आधार बनाना जरूरी है। यह बात डॉ. शर्मा के विस्तृत 'मित्र संवाद' से ध्वनित होती है। कार्ल मार्क्स ने प्रकृति को सदा 'मनुष्य का विस्तार' कहकर उसे जीवन से कभी अलग नहीं माना। यह बात आज के हर कवि तथा आलोचक को सीखने की है।
'मित्र संवाद' से पता लगता है कि 1976 के आसपास डॉ. शर्मा अपनी पत्नी की सेहत को लेकर पेरशान हैं। फिर भी अपने काम के लिए समय निकाल लेते हैं और मन सधा रहता है। यही है 'निगेटिव कैपेविलिटी' यानी 'निषेधी क्षमता'। अभिप्राय है प्रतिकूलतम स्थितियों में भी सृजन कर्म के लिए स्वयं को साधे रखना। हमारे यहाँ इसे 'सृजनसमाधि' कहा गया है। इन्हीं दिनों वह मार्क्स की अमर कृति 'पूँजी' खण्ड दो का अनुवाद पूरा करते हैं। बताया है कि इस बीच मालकिन (पत्नी) दो बार बीमार पड़ी। इस पुस्तक का अनुवाद करते समय उनको लगा कि वह 'मार्क्स के दिमाग की सारी कार्यवाही बहुत नजदीक' से देख रहे हैं। इस पुस्तक का उन पर बहुत असर हुआ है। दूसरे, उन्होंने देखा कि मार्क्स का विचार क्षितिज बराबर बदल रहा है। इसे उन्होंने गाँठ बाँध लिया। यह भी कि मार्क्स का अनुयायी होने का मतलब उनके सूत्रों को दोहराना नहीं है। मार्क्स की मान्यताओं में 1860 के आसपास मौलिक परिवर्तन हुए थे। इन परिवर्तनों का उल्लेख उन्होंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। इन्हीं दिनों उनके दिमाग में 'ऐतिहासिक भौतिकवाद और भारत' पुस्तक लिखने की बात पैदा हुई।
1977 के आसपास डॉ. शर्मा ने कविता में 'क्षणिक अनूठेपन' के प्रतिमान को प्रतिष्ठित करने का दर्शन बताया है। कहते हैं, 'कि संसार में जो कुछ महत्वपूर्ण हैं, सुंदर है, वह क्षणिक' ही होता है। जैसे शरद की साँझ। वैसे शरद हर साल आती है और साँझ भी होती है। पर हर शरद या शरद की साँझ एक सी नहीं होती। इस क्षणिक को अमर बना देना कविता का काम है। उन्होंने कविता को मौत से आदमी की कभी न खत्म होने वाली लड़ाई का नतीजा बताया है। जो अशाश्वत है, उसे दूसरों के लिए अपेक्षाकृत शाश्वत बनाकर छोड़ जाती है कविता। शाश्वत का चित्रण करके ही नहीं, अशाश्वत को उसी क्षण में हमेशा के लिए बंदी बनाकर।
एक जगह उन्होंने केदार बाबू की कविता पढ़कर 1978 के आसपास उन्हें 'भीतर से सूफी' बताया है। यह भी कि केदार बाबू की कविता उनकी 'क्षणिक अनूठेपन' की धारणा को परिपुष्ट करती है। केदार बाबू को कहा है कि वह 'कालातीत' होने के स्वप्न में तादात्म्य सौंदर्य के प्रतीक गुलाब' की तरह हैं। इन्हीं दिनों उन्होंने नए कवियों की 'वर्णन क्षमता के ह्रास' की बात कही है। कहते हैं कि अंग्रेजी में पहाड़ों, मैदानों पर बहुत सी अच्छी कविताएँ हैं, पर समुद्र पर कम हैं और जो हैं, उनमें भावोद्गार अधिक है समुद्र कम। नई कविता के प्रवाह में 'हमारे कवियों की वर्णन क्षमता का ह्रास' हुआ है। इन्हीं दिनों उन्होंने पाश्चात्य आलोचना की 'शास्त्रीयता को दरिद्र' बताया है। पर जहाँ वह कवियों के अनुभव प्रस्तुत करती हैं, वहाँ 'मनन करने योग्य' है। ध्यान रहे वह यहाँ केवल 'सर्जनात्मक चेतना के रूपों' पर बात कर रहे हैं।
1982 के एक पत्र में 'क्रांति और कविता' की प्रक्रिया को लगभग एक सा बताया है। कहा है, 'क्रांति की तरह कविता सुविचारित योजना और स्वत:स्फूर्त कार्यवाही' का परिणाम होती है। बाद में यह भी कहा है कि इन दोनों का अनुपात हर क्रांति या कविता में एक सा नहीं होता। इसी पत्र में उन्होंने केदार बाबू की कविता को 'सहजबोध' की कविता कहा है। केदार बाबू को अपनी कविता तथा सृजनशक्ति पर विश्वास करने का सुझाव दिया है। उसे कम करके न आँकने को भी कहा है। एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है कि कवि को 'ध्यान रचना पर केंद्रित' करना चाहिए। उसकी 'व्याख्या की चिंता' न करना ही बेहतर है। उनके अनुसार, 'अच्छी कविता अपना मर्म शब्दों के भीतर छिपाए रहती है और उस तक लोग धीरे-धीरे पहुँचते हैं। यानी कविता में छाया प्रतीतियों के गर्भ में ही सार तत्व निहित होता है। दोनों को ही समझना कविता को समग्र समझना है। कुछ कवि वैज्ञानिक विश्वदृष्टि के अभाव में आजीवन छाया प्रतीतियों को ही यथार्थ मानकर शब्द क्रीड़ा करने में आनंद लेते रहते हैं। बुर्जुआ मन हमें सार तत्व तक पहुँचने ही नहीं देता। छाया प्रतीति को भेद कर सार तत्व को वही कवि या समीक्षक पा सकता है जिसके पास भौतिक द्वंद्वमय वैज्ञानिक दृष्टि है।
1982 के एक पत्र में वह केदार बाबू की कल्पना को 'यथार्थोन्मुख' बताते हैं। अत: उसमें 'भ्रम की संभावना' नहीं हैं।
1983 में वह उनको मार्क्स और मार्क्सवाद के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बता रहे हैं। कहा है कि 'मार्क्स जब दर्शनशास्त्र पर लिखते हैं तब अर्थशास्त्र उनके साथ रहता है। जब अर्थशास्त्र पर लिखते है तो दर्शनशास्त्र साथ रहता है।' इसी पत्र में 'कविता की व्याख्या कैसे की जाए' सवाल का जवाब दिया है। उनका मानना है कि 'विशेष कविताओं की व्याख्या किए बिना निर्विशेष कविता की व्याख्या हाथ न लगेगी'। यदि कोई आलोचक किसी कवि का सही अध्ययन करता है तो वह कविता मात्र के अध्ययन से कवि का और उसकी रचना का मार्ग प्रशस्त करता है। फिर केदार बाबू को सावधान करते हुए कहा कि यहाँ के 'असरदार बुद्धिजीवी कहीं न कहीं अमरीका और उसकी एजेन्सियों से जुड़े हुए हैं। कम्युनिस्ट पार्टियाँ उत्तर भारत में लगभग निष्क्रिय हैं, इसलिए बिखराव है।'
14 अगस्त, 1983 को सबेरे अचानक दिल का दौरा पड़ने से डॉ. शर्मा की पत्नी का देहांत हुआ। एक वाक्य से केदार बाबू को बताया कि 'मालकिन (पत्नी) ने एक ही झटके में खाई पार कर ली। 12 मार्च, 1985 को उन्होंने केदार बाबू को 'काल देवता के चक्र' के बारे में बताया है। काल देवता की घटनाएँ अपने हिसाब से घटित होती हैं। उनकी चपेट में बूढ़ा आ रहा है या जवान, कवि या आलोचक, इससे उसे कोई वास्ता नहीं। कुछ परिस्थितियों से तो आदमी लड़ सकता है, पर अन्य ऐसी भी होती है जिनसे लड़ना संभव नहीं। आदमी चुपचाप सहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। रहस्यवादी कवियों को भले आदमी कहा है, पर वह आनंदविभोर तभी तक रह सकते थे जब तक उन पर घनचोट न पड़े। भवभूति, निराला तथा शेक्सपियर - ये सब 'घनचोट के कवि' हैं और डॉ. शर्मा के प्रिय 'कवि' हैं। सचमुच दु:खद क्षणों में वह भीतर से डोल गये थे। उस मनोरचना का जवाब कविता लिखकर ही दिया जा सकता है। पर वह अभी 'गद्यलोक' में हैं। यहाँ कवि को सीखने की बात है कि बड़ी त्रासदी के बाद भी सृजन में कोई व्यतिक्रम नहीं है न बनक टूटी है न आस्थाएँ खण्डित हैं न जीवन से विराग है। यहाँ फिर 'निषेधी क्षमता' का अच्छा प्रमाण डॉ. शर्मा दे पा रहे हैं। मैंने ऐसे लेखक देखे हैं जो थोड़ी सी त्रासदी में अपने सारे संकल्प ही खो बैठते हैं। देश छोड़कर विदेश भागते हैं। मार्क्सवादी दर्शन त्याग अध्यात्म की गुफाओं में बचाव देखते हैं।
18 सिंतम्बर, 1985 को डॉ. शर्मा ने केदार बाबू के प्रेम कविता संग्रह, 'हे मेरी तुम' पर कुछ कहा है। दोनों महान लेखक बुढ़ापे की 'घनचोट' सह-सह कर सृजनरत हैं। इस संग्रह में डॉ. शर्मा को एक ओर 'प्रेम का दमकता उजाला' दिखाई देता है, दूसरी तरफ 'वृद्धावस्था की छायाएँ' भी। उनका कहना है कि पत्नी को केदार बाबू ने बहुत प्यार दिया है। बहुत प्यार उनसे पाया भी है। पर अशक्त होने पर उसे सँभालने का दायित्व भी कवि का है। यह सहज है कि परस्पर स्नेह जितना गहरा होता है, विछोह की संभावना उतनी ही मर्मांतक पीड़ा देने वाली होती है।
इसी पत्र में उन्होंने केदार बाबू की कविता के कथ्य के आधारों को बताया है। केदार बाबू ने प्रकृति (अपने और किसान के प्राकृतिक परिवेश) पर लिखा है। उन्होंने सामाजिक यथार्थ पर (भारत के जनांदोलन पर, वर्तमान व्यवस्था पर) लिखा है, उनके अनुसार केदार बाबू ने प्रेम पर (अपनी जवानी से लेकर बुढ़ापे तक प्यार की विभिन्न मंजिलों पर) लिखा है। उनके अनुसार जहाँ केदार बाबू ने अपने ऊपर लिखा है वहाँ इन्हीं संदर्भों में लिखा है। इस सबको समेटने वाली कवि की एक व्यापक निष्ठा है - कविता के प्रति। वह केदार बाबू को संबोधित करते हुए कहते हैं कि, 'प्रकृति ने मनुष्य जीवन की सीमाएँ निर्धारित कर दी हैं। इन सीमाओं पर मनुष्य विजय पाता है कविता में। जो मर्मांतक पीड़ा है, उसे भी वह अपनी कविता का विषय बनाता है।' इस तरह वह विष को अमृत में परिवर्तित कर देता है - अपने लिए, उससे ज्यादा दूसरों के लिए।
यहाँ तक आते-आते डॉ. शर्मा केदार बाबू की कविता के बारे में पूर्ण आश्वस्त तथा गंभीर दिखाई देते हैं। उन्हें अब कवि के जीवन तथा कविता में एकात्म भाव दिखाई देता है। जैसे उनकी कविता पढ़ना उनकी 'जीवन यात्रा' का भी अध्ययन हो। वह केदार बाबू की कविता को अब 'हिंदी कविता की विजय' मानने लगे हैं, क्योंकि उनकी कविता में उनके परिवेश का ऐसा प्रतिबिंबन है जिसमें कवि के 'भीतर' निहित साधना की लौ जीवित है। यानी किसी कविता में परिवेश का प्रतिबिंबन तभी सार्थक होगा जब उसमें कवि के हृदय की ऊष्मा का भी अनुभव विस्तार हो सके। मार्क्स ने इसे 'वस्तु की आत्मपरकता' कहा है। डॉ. शर्मा यह देख सुन कर दु:खी हैं कि उनके सामने 'राजनीति में काफी अवसरवाद' प्रवेश पा चुका है। उसके ही अनुरूप 'मार्क्सवादी लेखकों में अवसरवाद गहरे घर' कर गया है। इससे उनकी सृजन क्षमताओं में गिरावट आई है। उनकी बनक खण्डित हुई है। दूसरे, लेखकों की विश्वसनीयता का भारी क्षरण हुआ है। फिर भी एक ईमानदार मार्क्सवादी की तरह उनको भरोसा है कि यह 'अवसरवाद छँट' जाएगा। 'राजनीति और साहित्य में मार्क्सवाद का सूरज' फिर चमकेगा। संकेत है अवसरवाद की जड़ें बहुत कमजोर होती हैं। वह एक दिन बेनकाब होकर अपना अस्तित्व खो देता है। एक लेखक को अपनी आस्था पर अडिग होना उसकी ईमानदारी की पहली शर्त है। वह यह भी कहते हैं कि जब मार्क्सवादी चेतना फिर लौटेगी तब केदार तथा केदार जैसे कवियों को जनता में लोकप्रियता मिलेगी।
वह यह भी मानते हैं कि 'मार्क्सवाद की सही समझ के बिना' वर्तमान व्यवस्था बदली नहीं जा सकती।' उनका संकेत है कि पथभ्रष्ट मार्क्सवादियों ने इतिहास और मार्क्सवाद के बारे में बहुत भ्रम फैलाए हैं। केदार बाबू जैसे कवियों को ऐसे भ्रमों से बहुत सावधान रहने की जरूरत है। कहते हैं कि निराला और केदार बाबू ने 'एक साथ हिंदी में नए यथार्थवाद' की शुरुआत की थी। केदार बाबू की 'सही जमीन यथार्थवाद' की है। कवि ने इस नए यथार्थ की जमीन पर 'चलते हुए अर्ध शताब्दी' पूरी की है। यह आज की कविता की बड़ी उपलब्धि है। अत: वह कवि केदार का 'अभिनंदन' करते हैं। संकेत है कि ऐसी ही कविता से आज 'सही तथा लोकोन्मुख काव्य प्रतिमान' रचे जा सकते हैं। कविता के नए प्रतिमान जो आज तक रचे गये हैं वह सामाजिक यथार्थ विरोधी, अमरीकी रूपवादी समीक्षा से उधार लिए प्रतिमान है। संकेत यह भी है कि ऐसे अमरीकी प्रतिमानों से केदार बाबू तथा उन जैसे प्रगतिशील किसी भी कवि की 'यथार्थवादी कविता' को नहीं परखा जा सकता। दूसरे, कविता के नए प्रतिमानों में केदार बाबू, नागार्जुन, त्रिलोचन, शील, मुक्तिबोध आदि की उपेक्षा मार्क्सवादी आलोचना का अवसरवादी विघटित रूप है। यही वजह है कि ऐसे काव्य प्रतिमानों को आज खारिज कर दिया गया है। इतिहास ऐसे भूसे को बहुत जल्दी फटक कर अलग कर देता है।
22 दिसम्बर, 1985 के एक पत्र में उन्होंने कविता के बड़े प्रयोजन की ओर संकेत कर कहा है कि उसमें 'मनुष्य को सँभालने की अमिट शक्ति' है। इस शक्ति के स्रोत कवि में ही होते हैं। सामान्य जीवन में सामान्य शक्ति से काम चल जाता है। जब ऊपर से गहरी चोट पड़ती है, तब विचलित होते हुए भी कवि शक्ति के नए स्रोत खोज लेता है। कवि परिवार का होता है। उसी के साथ वह समूचे देश का भी होता है। देश का ध्यान कवि को टूटने से बचाता है। संकेत है कि जिस कवि के जितने बड़े सामाजिक सरोकार होंगे उसमें जनता की पीड़ा से एकात्म होने की उतनी ही ज्यादा ललक होगी। बड़े सामाजिक सराकोरों से ही कविता बड़ी बनती है। कवि दिक्काल का अतिक्रमण तभी कर सकता है।
'मित्र संवाद' से लगता है कि 1986 तक आते-आते डॉ. शर्मा के पत्रों का कथ्य ज्यादा चिंतनपरक, दार्शनिक तथा व्यापक हुआ है। वह केदार बाबू से उन बातों का साझा करना चाहते हैं, जो कवि और आलोचक, समाज तथा व्यक्ति के लिए बहुत जरूरी हैं। 23 जनवरी, 1986 के एक पत्र में उन्होंने जीवन को समझने के लिए 'झील' का सांग रूपक चुना है। उन्हें मनुष्य जीवन 'एक झील' लगने लगा है। जन्म और मृत्यु एक ऐसा 'घेरा' है, जो सतह के हर बिंदु से दिखाई देता है। बिंदु से परिधि तक का विस्तार मनुष्य के हाथ में नहीं होता। मनुष्य के कर्म इस विस्तार को कुछ कम जरूर कर देते हैं। आगे कहा है कि 'झील की गहराई' मनुष्य के हाथ में है। कवि जब भावों में निमग्न होता है तो वह अपने को 'अथाह जल' में पाता है। इस संदर्भ में वह अंग्रेजी कवि शैली का कथन उद्धृत कर बताते हैं कि हर 'बड़ी कविता में अर्थ की असीमता' होती है। यह 'असीमता' भले ही निरपेक्ष रूप में अनंत न हो, पर वह आयु की निर्धारित सीमा से तो बढ़ कर है ही। फिर उन्होंने निराला की 'वन वेला' की एक पंक्ति दी है - 'मस्तक पर लेकर उठी अतल की अतुल वास'। उनका मानना है कि जिस पार्क में 'वन वेला' खिली थी, उसकी चौहद्दी दिखाई देती थी, पर जहाँ से वह गंध लेकर उठी है, वह अतल था। गहराई ऊपर के विस्तार से कहीं ज्यादा थी। जैसे हिमनद के दिखाई देने वाले भाग से नीचे छिपा भाग तीन गुना बड़ा होता है। वह यह भी मानते हैं कि 'मनुष्य में गहरे डूबने की क्षमता' है। चाहे एक क्षण को ही डूबे। वह इतने गहरे डूबता है कि ऊपर काल प्रवाह बहुत छोटा लगता है। कवि इस तरह मृत्यु को जीतता है। अपने प्रेम के अनुभव को अपने लिए और दूसरों के लिए अमर कर जाता है। जहाँ 'मानव प्रेम है वहाँ वैराग्य' के लिए गुंजाइश नहीं है। 'रस विशेष जाना तिन नाही'।
इसी पत्र में डॉ. शर्मा भावातिरेक के स्वभाव को बताते हैं। यह एक प्रकार से 'आपे से बाहर' होना है। इस तरह का भावावेश आनंद के अतिरेक का ही परिणाम होता है। भवभूति और शेक्सपियर ने शोकग्रस्त मन की एक्स्टेसि (भावातिरेक) का वर्णन किया है। निराला की 'सजग संज्ञाशून्यता' यही शोक वाली एक्स्टेसि हैं - 'अवसन्न भी हूँ प्रसन्न मैं प्राप्त वर' अथवा 'स्नेह निर्झर बह गया है/रेत ज्यों तन रह गया है।'
डॉ. शर्मा भवभूति और शेक्सपियर से निराला की त्रासद एक्स्टेसि (भावातिरेक) का फर्क बताते हैं। निराला टूटकर भी कर्म विमुख नहीं होते। जैसे 'वह एक और मन रहा राम का जो, न थका' यह अथक मन बराबर संघर्ष करता हैं। जैसे वाल्मीकि ने शोक को श्लोक बना दिया। शोक: श्लोकत्वमागत:। लगभग वैसे ही निराला ने। शोक, प्रेम से भिन्न रूप में जुड़ा हुआ शोक, कर्म की जबर्दस्त प्रेरणा बन सकता है। जैसे कच्चे लोहे में विषैले रसायन मिलाकर इस्पात बनाया जाए। वैसे ही 'शोक में गुणात्मक परिवर्तन' होने पर वह कर्म की प्रेरक ऊर्जा बन जाता है।
इसी लंबे पत्र में वह कवि केदार बाबू को प्रतिबिंबन तथा मनुष्य की मेधा के चमत्कार के बारे में बताते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य का चित्त प्रतिबिंब ग्रहण करता है। साथ ही उनके आपसी संबंध पहचानता हैं। प्रतिबिंब ग्रहण झील की परिधि की तरह हैं। विचार क्षमता गहरे डूबने की तरह हैं। मनुष्य का एक चित्त वह है जो अनेक प्रकार की संभव असंभव कहानियाँ गढ़ लेता है। दूसरा वह चित्त है जो वैज्ञानिकों ने प्रकृति की शक्तियों को पहचानने में लगाया है, जो है नहीं उसकी कल्पना कर प्रकृति को पहचानना मनुष्य की 'मेधा का चमत्कार' है, वह विचार और भाव दोनों में गहराई आँकते हैं। दोनों ही कवि के सृजन के जरूरी उपकरण हैं। दोनों का संबंध कर्म से है। श्रेष्ठ विज्ञान, श्रेष्ठ कला कालजयी है। शोक से मनुष्य टूटता नहीं है। उसका सामना करने के लिए वैराग्य के बदले वह मनुष्य की अप्रतिहत रचनात्मक क्षमता का भरोसा करता है। भारतीय साहित्य का यही स्वर उसका केंद्रीय बिंदु हैं। यह सकर्मक तथा ऊर्जावान दर्शन उस पतनशील दर्शन से भिन्न है जो मनुष्य को पस्तहिम्मत, अवसादग्रस्त तथा जीवन विमुख होने को अभिशप्त बनाता है।
इसी पत्र के नीचे केदार का पत्र है। 28 जनवरी, 1986 को शाम 6 बजकर 15 मिनट पर उनकी पत्नी का देहांत हो गया। इस पर बनारस से 5 फरवरी, 1986 को डॉ. शर्मा ने अपने प्रिय कवि को सांत्वना देते हुए कहा कि 'पुरुष सब कुछ सहने के लिए समर्थ है। उसके लिए पत्नी है संसार। पत्नी का संसार उसका पति है, वह केदार की कविता को नई शक्ति दे गई। स्वयं उसमें अमर हो गई।
केदार ने डॉ. शर्मा को लिखा, 'मैं अपने को सँभाले हूँ। पर सब कुछ तो मुझ पर नहीं हैं। महाकाल की कुमति करनी का कोई भरोसा नहीं कि कब पकड़ ले जाए। वैसे मैं "उन्हें (काल देव को) हड़काए" रहता हूँ।' इस पर 17 मार्च, 1986 को डॉ. शर्मा ने महाकाल की कुमति करनी पर टिप्पणी की है, 'साहित्यकार सूरमा है, लड़ते-लड़ते खेत रहे, इसी में उसकी शान है'। प्रसाद की पंक्ति दी है - 'चढ़कर मेरे जीवन रथ पर, प्रलय चल रहा अपने पथ पर'। इस संदर्भ में कबीर की पंक्ति याद आती है- 'लागै ठोकर पीठ ने देवै/सूरा सन्मुख जूझै।'
20 मार्च, 1986 के एक पत्र में उन्होंने कवि केदार बाबू का शोकाकुल ध्यान मोड़ने को उन्हें बाँदा की प्रकृति की याद दिलाई है। कहा कि बाँदा में कवि के काफी परिचित और मित्र हैं। जैसे 'टुनटुनिया' पहाड़ और 'केन' नदी। फिर लिखते हैं कि धूप तेज़ होने लगी है। यहाँ आमों में खूब बौर आए हैं। इस विश्वविद्यालय (काशी हिंदू वि.वि. जिसके परिसर में आम के सघन वृक्ष हैं) में ये पेड़ ही अब देखने और बात करने लायक रह गए हैं। जैसा मैंने कहा कि केदार बाबू को डॉ. शर्मा प्रकृति की बार-बार याद दिलाते हैं। संकेत है कि गहरे शोक और अवसाद में वह ही हमें साधती है। राम सीता के वियोग में वृक्षों, पशु-पक्षियों से बात करते हैं। उनसे सीता के बारे में पूछते हैं।
1986 आते-आते डॉ. शर्मा को 'अकेले यात्रा करना संभव नहीं' रहा था। अब उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ की स्थिति पर अफसोस होने लगा है, क्योंकि उसकी स्वर्ण जयंती पर उ.प्र. के किसी कार्यक्रम में सबसे पहले 'राजीव गांधी का संदेश' पढ़कर सुनाया गया था। 28 अप्रैल, 1986 के एक पत्र में उन्होंने केदार बाबू से अफसोस जाहिर करते हुए कहा, 'कहाँ निराला और प्रेमचंद, कहाँ आज का यह प्रगतिशील लेखक संघ'। उन्हें विश्व स्तर पर भी समाजवादी व्यवस्था में निहित विकृतियों से उत्पन्न खतरे दिखाई देने लगे थे। इसी पत्र में उन्होंने केदार बाबू से कहा कि, 'रूसी शराब पीना बंद कर दें तो यह दूसरी अक्टूबर क्रांति होगी।' दरअसल डॉ. शर्मा केदार बाबू को हिंदी के मार्क्सवादी लेखकों के चारित्रिक पतन के बारे में बार-बार सजग कर रहे हैं। इन्हीं दिनों उन्होंने केदार बाबू को रूस के बदलते घटना चक्र के बारे में सजग किया था। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की गोर्बाचेव द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पढ़ने को भी कहा है। उसमें मद्यपान कम करने के अलावा तलाक की दर घटाने की बात कही है। सुदृढ़ परिवार बनाने पर भी जोर दिया है। समाजवादी रूस में भ्रष्टाचार फैला है। इसका भी उल्लेख है। साम्राज्यवादी देश अमरीका की युद्धोन्मादी प्रवृत्ति को रोकने के लिए 'अमरीकियों की सूदखोरी' बंद करने का सुझाव है। संकेत है कि एक जनवादी प्रतिबद्ध कवि को दुनिया के राजनीतिक घटना चक्र पर बराबर दृष्टि रखने की जरूरत है। कोई कवि आज राजनीति से निरपेक्ष होकर बड़ा नहीं बन सकता, तभी कविता अपने देश की विकृतियों तथा असंगतियों का प्रतिरोध कर पाएगी। इसी से कवि की वैज्ञानिक विश्वदृष्टि निर्मित होगी। बड़ी तथा प्रभावी कविता तभी संभव है।
27 जून 1986 के एक पत्र में वह केदार बाबू के काव्य विकास के पड़ावों का उल्लेख करते हैं। वह मानते हैं कि 'विकास की मंजिलें स्पष्ट हो गई हैं। एक - 1944 तक यथार्थवाद का प्रारंभिक विकास। दो - 1945 से 1947 का संघर्षों वाला दौर यानी राजनीतिक पैनापन। तीन - 1948 से 1953 तक के दौर में दूसरे दौर (संघर्षों तथा राजनीतिक पैनापन) की चेतना का बना रहना। 'राजनीतिक कवि रूप में' नागार्जुन को 'इसी दौर का कवि' माना है। इसके साथ ही प्रयोगवाद की धारा क्षीण होती गई है। चार - 1954 से 1956 तक तीसरे दौर की धारा (राजनीतिक चेतना का पैना होना) जारी रही है। तीसरे दौर की धारा कवि केदार बाबू तथा नागार्जुन की कविता में प्रवाहित है। डॉ. शर्मा इसे 'नई कविता का प्रसार' मानते हैं। 1945 से 1956 तक मूलत: एक ही 'संघर्षोन्मुख राजनीति' बनी रही है। 1956 से डॉ. शर्मा कविता में 'विघटनकारी प्रवृत्तियों का उभार' देखते हैं। इस पत्र में उन्होंने भीष्म साहनी का कथन दिया है जिसमें प्रगतिशील कविता को 'असहाय वेदना की आवाज' कहा गया है। मेरा विचार है कि 1956 में केदार बाबू तथा नागार्जुन के अलावा त्रिलोचन, मुक्तिबोध तथा शील की सक्रिय उपस्थिति को आँख ओट नहीं किया जाना चाहिए। 1957 तक त्रिलोचन का सानेट संग्रह 'दिंगत' आ चुका था। यह प्रगतिशील कविता के लिए बहुत ही भरोसे की बात थी। मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदार बाबू, नागार्जुन तथा शील की जनवादी कविता नई कविता के प्रतिवाद के रूप में पहचान बना चुकी थी। एक संभावनापूर्ण विकल्प। भीष्म जी का कथन मुझे कुछ अतिरंजित लगता है।
1987 में डॉ. शर्मा केदार बाबू को बताते हैं कि वह अब सुकरात पर लिख रहे हैं। एथेन्स के लोकतंत्र ने उसे देशद्रोही बताकर 'मृत्युदण्ड' दिया था। कहते हैं मृत्युदण्ड से 24 साल पहले सुकरात के विरुद्ध एक नाटक लिखा गया। उसमें दिखाया है कि सुकरात नास्तिक है। देवताओं का अपमान करता है। युवाओं को बरगलाता है। इस प्रचार के बाद नाटक के अंत में लोग उन पर पत्थर फेंकते हैं और घर में आग लगा देते हैं। सुकरात अपने शिष्यों के साथ भाग खड़े होते हैं। इसी साल 1987 अगस्त को लखनऊ में डॉ. शर्मा के 'बड़े भैया' का निधन हुआ। उनका कहना है कि तीन-चार साल की उम्र से लेकर अब तक सबसे 'दीर्घकालीन संपर्क' उन्हीं से था। इसी वर्ष डॉ. शर्मा ने केदार बाबू को बताया कि, किस तरह मार्क्स पहले अमरीका को प्रगतिशील मानते थे, पर बाद में उसके हिंसक दमनकारी रूप का उन्होंने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है। वह अपनी अगली पुस्तक में इसका उपयोग करने की बात भी कहते हैं। इसी साल डॉ. शर्मा को डि.लिट. की उपाधि आगरा वि.वि. ने दी, पर 'यात्रा कष्ट' की वजह से उसे लेने तक नहीं गए। यह फिर एक प्रमाण है कि वह उन तुच्छताओं में कतई लिप्त न थे जिन्हें पाने को आज शिखर पुरुष तक बेचैन रहते हैं। फिर डॉ. शर्मा प्रकृति की ओर लौटते हैं। कहा है, 'आज सबेरे घनघोर कुहरा था, और दिन 6 बजे घूमने जाता था, आज 7 बजे गया। आम के पत्ते, पीपल के पत्ते, बरगद के पत्ते, सबसे ओस की बूँदें टपकने का इस्टाइल अलग-अलग था, दिन के तीन बजे भी गोभी के पत्तों पर ओस की बूँदें देखीं।
8 जनवरी, 1988 के एक पत्र में उन्होंने केदार बाबू को बताया कि 26 जनवरी, 1988 को उन्होंने शमशेर और त्रिलोचन को टी.वी. पर देखा। शमशेर की 'अत्यधिक कमजोरी' का उल्लेख है। यह भी कि उन पर शोध करने वाली छात्रा उन्हें 'चम्मच से खाना खिला' रही थी।
एक अत्यंत महत्वपूर्ण पत्र डॉ. शर्मा ने केदार बाबू को 15 मई, 1988 को लिखा है। त्रिलोचन का प्रसंग है कि वह मिलने आए। 'अधिकतर शब्दों की चर्चा' करते रहे। यह भी संकेत है यदि त्रिलोचन जमकर काम करते तो बहुत कुछ कर चुके होते। त्रिलोचन से काव्य चर्चा कम हुई। केदार बाबू द्वारा गेंदे फूलने और बोगन बेलिया के लाल होने का प्रसंग उठाने के उत्तर में डॉ. शर्मा ने कहा, 'आमों के बिना वसंत क्या - कालिदास से निराला तक बहुत से कवि गवाह हैं। यहाँ आम खूब बौराए हैं। दो तो हमारे कंपाउण्ड में ही हैं।' संकेत यही है कि प्रकृति के बिना न तो जीवन में रस है न कविता में समृद्धि। केदार बाबू की कविता इस बात को खूब बताती है।
इसी पत्र में प्रताप नारायण मिश्र द्वारा 'बुढ़ापे' पर लिखी कविता का उल्लेख है। कहा है कि उनका हाल 'हमसे भी बुरा' था और पचास पार करने के पहले ही। इसी संदर्भ में डॉ. शर्मा अपने वैदिक ऋषियों के बुढ़ापे से बचने की तीव्र इच्छा का उल्लेख करते हैं। यानी युवा जीवन जीने की तलब जैसी वैदिक ऋषियों में थी वैसी आज के लोगों में नहीं है। चिर चुवा। अग्नि देव नित्य नवीन हैं। उसी प्रकार उषा देवी भी नित्य नवीना हैं। फिर कहा है कि योरोप के रोमांटिक कवियों ने प्रकृति और मनुष्य में जो वैषम्य देखा है, चिरंतन सौंदर्य की जो कल्पनाएँ की हैं, वे मानो अपने आदिम रूप में सब की सब 'ऋग्वेद' में विद्यमान हैं। बताया है कि इधर वह 'ऋग्वेद' पढ़ने में लगे हैं। वह लगातार केदार बाबू को वैदिक कविता का सौंदर्य बता रहे हैं। संकेत है हर कवि को इन महान कृतियों से गुजरना जरूरी है। साथ ही वह ऋचाओं में निहित संगीत की भी चर्चा करते हैं। कहते हैं कि वेद पढ़ने या गाने वालों में वह ऊर्जा न मिलेगी जो ऋचाओं की शब्द योजना में निहित है। ऋग्वेद में कुछ वर्णनात्मक कविताओं का उल्लेख भी किया हैं। जैसे जुआरियों वाला सूक्त। कवि, दार्शनिक और पुरोहित का संघर्ष ऋग्वेद में शुरू हो गया है। 'यथार्थवादी चिंतन' से भौतिकवाद' की नींव पड़ती है। डॉ. शर्मा को समकालीन कविता से गहरी रुचि कभी नहीं रही। अत: कहते हैं कि, 'न चाहने पर भी लोग कविताएँ सुना जाते हैं।' यह एक तरह का तीखा व्यंग्य है उन कवियों पर जो कविता तथा कवि कर्म को गंभीरता से नहीं लेते। जिन्हें अपनी कविता पर आलोचकों की राय की तलब लगी रहती है।
25 मई, 1988 के पत्र में डॉ. शर्मा ने बताया कि वह इधर वाल्ट विटमैन को फिर से पढ़ रहे हैं। पता लगा कि अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान उसने 'अस्पताल में नर्स का काम' किया था। वह मानते हैं कि उसकी कविताओं का स्तर ऊँचा नहीं है। पर कुछ में जैसे गद्य साँचे में ढला हो। गद्य के अलावा वहाँ अन्य कोई छंद फिट न होता। उन्होंने माना है कि 'कविता लिखने में उन्हें आलस' लगता है। यहीं उन्होंने अथर्ववेद के वशीकरण-मारण-रोगोपचार मंत्रों के बीच सहसा कविता फूट पड़ने का उल्लेख किया है। जैसे इंद्र यशा, अग्नि यशा, सोम (चंद्र) यशा। फिर कहा है संसार में सब प्राणियों में 'मनुष्य' यशतम - सबसे अधिक यशस्वी है। देखा गया है कि जिस कवि या पुस्तक का जिक्र डॉ. शर्मा करते हैं उसे केदार बाबू जरूर पढ़ते या उलटते-पलटते हैं। विटमैन की बात सुनकर केदार बाबू ने लिखा है कि वह 'व्हिटमैन निकालकर फिर' सूँघेंगे। इसी प्रक्रिया से केदार बाबू के कवि व्यक्तित्व का इतना असरदार निर्माण हो पाया था। यदि उनके जीवन से डॉ. शर्मा का योगदान हटा दें तो उनकी कविता तथा उनकी बनक दोनों खण्डित दिखेंगे।
1 मार्च, 1989 को डॉ. शर्मा वेदों में सरस्वती नदी के महत्व के बारे में केदार बाबू को बताते हैं। कहा है, वैदिक कवियों के लिए जो महत्व सरस्वती का था, वही या उससे मिलता जुलता महत्व तुम्हारे (और तुम्हारी कविता के पाठकों के) लिए केन का हैं। कहा है, 'एकाचेतत् सरस्वती नदी नाम' यानी नदियों में यह एक ही सरस्वती नदी चेतनायुक्त चल रही है। अर्थात् उसके किनारे जो लोग रहते हैं उनकी चेतना जाग्रत हैं। हो सकता है बाँदा में जाग्रत चेतना वाले एक (केदार बाबू) से अधिक नहीं हों तो क्या कम। केदार बाबू को डॉ. शर्मा बराबर सुझाते रहे हैं कि, 'खूब घूमो।' उस समय केदार बाबू अपने बेटे के पास तमिलनाडु में थे। वह कहते हैं कि केरल में प्रकृति का वैभव है। तमिलनाडु में स्थापत्य और संगीत समृद्धि। जितना देखो उतना ही और देखने को मन करता है। जो सुख कविता पढ़ने में है, वही सुख बेटे के साथ रहने में। जितने दिन बाँदा से बाहर रह सको, रहो। प्राणवंत कवि बूढ़े नहीं होते, हिमालय की नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र की तरह उनकी प्रतिभा नई अनुभूतियाँ सँजोती रहती है।
बड़ी रुचिकर बात यह है कि इस उम्र में भी डॉ. शर्मा की इंद्रियाँ सजग सचेत हैं। उन्हें 'आधे खुले दरवाजे से भीतर आती हल्की धूप में गुलमोहर की पत्तियाँ छाया नृत्य करती दिख रही हैं। बाहर कहीं जूही का पेड़ लगा है। देखना है, फूल आए या नहीं। शरद में तो हरसिंगार ने खूब फूल दिए।
3 मई, 1989 तक आते-आते डॉ. शर्मा ऋग्वेद में और डूबे। केदार बाबू को बराबर बताते रहे हैं कि भारतीय दर्शन की धाराएँ उससे कहाँ जुड़ी हैं।
1990 के आसपास 'मित्र संवाद' को प्रकाशित करने की ध्वनियाँ गूँजने लगी थीं। इन्हीं दिनों जब म.प्र. सरकार ने केदार बाबू को मैथिलीशरण पुरस्कार दिया तो डॉ. शर्मा की प्रतिक्रिया थी, 'बहरे सुनने लगे, अंधे देखने लगे, हार्दिक बधाई।
इस तरह इस 'मित्र संवाद' ने एक महान कवि और एक मनीषी महान आलोचक का परस्पर रचनाशील निर्माण किया है। दोनों की मैत्री में कहीं कोई फाँक या दुराव नहीं दिखेगा। यह हर प्रकार से अनुकरणीय है। एक दूसरे की मैत्री ने दोनों को जीवन तथा साहित्य में संघर्ष करने की ताकत और प्रेरणा दी है। डॉ. शर्मा ने कवि केदार बाबू की कविता के बारे में जो बातें कहीं हैं वे बातें अन्य कवियों को भी प्रेरित करेंगी। ऊर्जा देंगी। उनकी वैज्ञानिक तथा व्यापक विश्व दृष्टि निर्मित करने को खुला आकाश प्रदान करेंगी। इसमें यत्र तत्र जो काव्य सूत्र बिखरे हैं वे इतने सार्थक और पर्याप्त हैं कि उनसे किसी भी समय की कविता के लिए प्रतिमान रचे जा सकते हैं। यही नहीं बल्कि एक कवि और आलोचक को कैसा जीवन जीना चाहिए उसके लिए भी यहाँ गहरे संकेत हैं। पूरे मित्र संवाद का कथ्य इस बात को पुख्ता करता है कि कवि-आलोचक का जीवन उसकी रचना से कभी अलग नहीं है। हमारे नैतिक चरित्र में जब भी गिरावट आएगी उसका प्रतिबिंबन रचना करेगी।
[ श्रेणी : आलोचना। लेखक : विजेंद्र ]